रची बसी है

 समय की डोर जो बंधी रही है आस मेरी 

वो समय संग साथ दे ही जाता सारथि 

मन की वैदेही आग पार कर जाती है 

प्यास है मनों की स्नेह एक आरसी 

हाथों से मिले हों हाथ अधूरा हो साथ जब  

समां के तन मन में रची बसी है  जानकी 


प्यास की पिपासा एक बाँध लेती आस मेरी 

वो जलधि जल जंगल रमा जाता है सारथि 

तन की तपन की  बयार झूम जाती है 

छुवन है रजकण सौम्यता पुकारती 

मनों से मिले हैं मन देह की सुगंध सब 

समां के तन मन में रची बसी है जानकी 


साथ हो सफर सदा बाँध लेती आस मेरी

वो प्रणय प्रेम ज्ञान बांटता है सारथि 

मन में मिलन की तड़फ उठ जाती है 

त्याग है प्रेमधन  मौनमयी समझाती

प्राणों से मिले हैं प्राण सांसो की डोर सब 

समां के तन मन में रची बसी है जानकी 

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