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Showing posts from August 1, 2021

लौटने की आदत

 तुम्हे खुद से न हो शिकवा मुझे ताउम्र गर्दिश है  मुझे पनघट से प्यासा लौटने की एक आदत है  मैं जिन रास्तों चला सदियों वही खुद बंद होते हैं  मुझे ख़ाली हथेली लौट आना है सफर सबसे  हजारों पेड़ बोये हैं मैं रेगिस्तां बढ़ा आया  मुझे हर नीर से सूखा लौटने की एक आदत है  मैं जिन घाटों लिए थाली  वोही बाढ़ों से टूटे है  मुझे ख़ाली दुवाओं लौट आना देवस्थानों से  किताबों से घिरा हरदम वो पाती प्रेम न समझा  मुझे सबकी सभाओं से अगम लौटने की एक आदत है  जिन्हे मैं कह गया सबकुछ वहीं खामोश बैठे हैं  मुझे चुपचाप गिरना है भरे ख़ाली से मंचो से 

सौ गुजरे जो

दिन बसंत छोटे  हौं फिर भी खुशियों का अम्बार रहा  मेरे  मन में तू खोया और  तेरे मन में प्रीत जगा  सदियों सदियों जिसको ढूंढा तलाश उसे  भी एक रही  आलिंगन मन उसका है और  सांसो में कोई साँस रही  पुस्तक पुस्तक जिसको बांचा  समझ उसे भी एक रही  आध समर्पण मन देखा और  चाहत उनके पास रही  मोड़ मोड़ पर जिसको ढूंढा  बांट ताकता वो भी रहा  दर्पण में खुद को देखा और उसकी सी तस्वीर लगी  रात रात जगते थे जिसको  उसकी आंखें डबडब थी  कहा नहीं एक शब्द कहीं और  मन ने मन से बात कही  यूँ दिन करके सौ गुजरे जो  वक्त थमा सा पास रहा  हम उसमे खोये हैं और  वो सपनों से भी डरता रहा  आ आलिंगन फिर से कर लें  जाने कब तूफान उठें  हम दुनियां से रुखसत हों और  तेरा भी विश्वास रहे 

फूल खिले हैं

मैं घर था एक टूटा सा  खण्डहर एक बच्ची महराबें धूल ढकी मन की दीवारें आशा बनकर लाश पड़ी थी  अँधेरा कुछ छँटा हुआ है  मन कोलाहल थमा हुआ है  म्यानों में चुप हैं तलवारें संदेहों की लाश जली है  प्रीत वही चुपके खिलती है  न जाने कब घेर गयी है  प्रेम रंग से सजी मीनारें क्यारी में कोई फूल खिले हैं  सम्बन्ध वहीं सब तर जाते हैं  मन में जो आराध्य रहे हैं  गिरी अभी हैं बरसा की बूंदे  अभिलेखों पर शब्द दिखे हैं  प्राण वहीं सब बस जाते हैं  सांसे जिनसे थमी हुई हैं  संभल जरा मन चल तू होले अब लाम पर तार नहीं हैं 

शिलान्यास

 ये शिलान्यास हैं रिश्तों के  कुछ स्तम्भ खड़े मजबूती से  उथल पुथल कर बही जो नदियां  अब  रिश्तों की गंगा बहनी है  ये अर्धसत्य है जीवन का  कुछ आधार रहे हैं तनमन से  अनकहे द्वन्द जो टकराये हैं  अब दरीबे सत्कारों के बिछने हैं ये गुप्त मनन हैं भावों  के  कुछ खुले रहे हैं ज्ञान चक्षु से  लाखों परतें अंधियारी  सी  अब चाँद कहीं कोने पर हैं  ये गहराई का उत्खनन है  कुछ समय लगा है गर्तों पर  वो कूट  कूट कर पीसा है  अब मिठास की चासनी है  ये निष्कर्ष नहीं है जीवन का  कुछ आध अधूरे रिश्ते से  वो टुकड़ों टुकड़ों जोड़ा है  अब पूरा क्षितिज हमारा है 

गिला नही

इन ख्बाईशों के पहाङ पर न मैं चढ सकूँ तो गिला नही मेरी कोशिशें तो हैं सदा  न बढ सकूँ तो गिला नही  वो जो पास है मंजिल जरा न मैं पा सकूँ तो गिला नही  मेरी याद में बसा सदा न मैं मिल सकूँ तो गिला नही वो जो मन बसा सपना कोई न मै देख लूँ तो गिला नहीं  मेरे कर्मपथ पे जो सदा न मैं चल सकूँ तो गिला नही वो जो एक राह घर मेरी  न बुला सकूँ तो गिला नही  तु पहचान है मेरी सदा  मै मिट भी लूँ तो गिला नही