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Showing posts from July 21, 2019

थोडा लाज़मी है

ये शप्तपती की राह नही ना प्रेम प्रसंग की रंचना है  डगर स्नेह के सम्मान की है  थोडा विश्वास लाज़मी है  दूर रहे वो पास रहे हों विचारों मे अभिभूत रहे  रिश्ते जहाँ मनों के हों थोडा अपनापन लाज़मी है  झूठ सच की बुनियादों पर  मन की एक परिपाटी है  अपना सा जो लगा राह में हर सम्मान का अधिकारी है 

विश्वासों के समुन्दर

जो सुना है सब  भरोसा मत करना देखा है जिसे परख लेना  मरीचिका जो संदेहों की  फैलायी है तेरे लोगों ने  कभी विश्वासों के सुखे समुंदर   के पास आकर  खुद लहरों के निशा देख जाना जिनकी छाया है तुझपर  उनके भरम को समझ जाना दो पल रुककर  खुदसे बात कर जाना भरम जो फैलाये हैं तेरे लोगों ने  कभी अकेले बैठकर  बातों की असर का उनके वज़न तोल जाना 

मोहताज नही

कर्म ही फ़र्ज़ है मेरा,  मै झंझावतो से  परेशां नही होता , फ़क़ीर ही तो हूँ  जो वाहवाही का  मोहताज नही होता ।। रहने दो साहब !!  मै सच के साथ ही चलूँगा , हिमालय से बहता हूँ  रास्तों का मोहताज नही होता ....

वक्त आएगा

वक्त आएगा कि मैं-तू नहीं भी रहें भी तो क्या ये कवितायें मनों के खामोश द्वार ठकठकायेंगी वक्त आएगा कि हममे कोई बात करने को बाकि नहीं रह जाएगी उदासियों मै कोई सिसकी पलकों को नमी दे जाएँगी वक्त आएगा कि दूरियों में कई बाते छुपाई जाएँगी बिन बोले कही हर बात छाती पर बिजली सी कोंध जाएगी वक्त आएगा कि सब भूल कर नयी दुनिया सी बस जाएगी दस्तक देती स्नेह की कोई नज़र इन यादों को छलनी कर जाएगी 

तु कब अपना था

वहमों मे पलता अपनापन अपनो के फैलाये वहम  सांराश पर न पहुँच पाये कि तु कब अपना था  सींचीं हुई हर भावनाऐं  खामोश मरती कल्पनाऐं वो शब्द न गढ़ पाये  कि तु कब पास था  दूरियों में साँसों के निशाँ  थमती अंगुलियों की चित्रकारी  वो रंग न भर पाये  कि तु कब बेरंग था  ख़्बाव मे हिलोरें लेता मन  हक़ीक़तों के बोने पहाड़ों से टकराकर कब अपने लिए कुछ सज़ा पाये कि तु अब साथ था 

सियार दोस्त

तुम चिठ्ठी लिखती बुद्धिजीवी मै क़लम चलाती कविता हूँ  तुम NGO के पैसों मे मौज उड़ाती मैं महनतकस किसान हूँ  तुम सियार दोस्तों का हो झुण्ड प्रिये मै अकेला लड़ता फ़ौजी हूँ  #कहाँफिरअपनामेलप्रिये

खामोश यादें

देखा है वो बसन्त पतझड़ सावन मन्द  तेरे बिछड़ने का ग़म  नादान बिलखता मन  खोखले से आदर्श लिए  भटकते उठते पड़ते क़दम  डगमागाता सा विश्वास पागल बदहवास मन  दूरियों में ढलता प्रकाश  नज़दीकियों का वहम  जुड़ी रही कुछ खामोश यादें खाईयों मे दबता मन 

दावाग्नि

बरस हो गये  अब तो आजा बरखा बिन बदरा भी  बरस जा कोपलों को इन्तज़ार है  सुखा डाले तु एेसा निर्दयी नही हर दौर से गुज़रा है मातम शहर मरघट होते देखा है वो बुझते दीपक की लौं सा तु बलबलाके ख़त्म हो नही सकता कटते पेड़ों की पीड़ा खामोश है चिल्लाएँगे तो जहां रो पड़ेगा  ज़र्रा- ज़र्रा तिल-तिल जलता है  तु अब दावाग्नि सा झुलसा गया

वो बैठा रहा

वह बैठा ही रहा दिनों से  शायद इंतज़ार में होगा  सूखे में पपीहा की प्यास  और उदासी में मन की बात  अक्सर बड़बड़ाती ही है  उदासी का सबब न पूछ ख़ामोशी का इतबार कहाँ  गरीब की पुरानी झोपडी  और घोटालेबाज़ पर दौलत  अक्सर बरसती ही है  अपनों से नाराजगी का बोझ परेशान यूहीं नहीं करता  अपनो का छोड़कर जाना और दूरियों में उनकी की याद अक्सर रुलाती बहुत है 

नही दिखा

वो कभी बारिश मे  भीगता भी न दिखा  नही तो वो कभी  दुपट्टा घुमाके चबाता दिखा  क़दम थमे तो थे उसके पर कभी रुकता हुआ भी न दिखा  वो कभी कोई पाती लिखता भी न मिला  भीड़ मे भी अकेला सा रहा   पर खोया सा भी न दिखा रोया तो था वो कभी  पर खुल के कुछ न जताया कभी  वो वैसे कभी हाथ बढ़ायें भी न मिला  नही तो वो कभी  पास से छूकर गुज़रा  नज़र झुकाता तो था कभी  पर दायरों को पार न किया कभी 

अपनो के साथ

वो मन पर लकीर  खींच  कर चला गया वो बीज गहरा  डाल कर चला गया अनमिट ही रही  पत्थर की आशा नीव गहरी थी कहीं  कोई हिला न सका  वो अपना सा अपनापन देकर चला गया  जीवन को अनमिट  यादें देकर चला गया वो मन को इन्द्रधनुषी  रंग मे रंगा गया  ये तमन्ना नही उसे  जीत लूँ या हार जाऊ  हर हार मेरी उससे  जीत से कम न थी  वो खुशी या ग़म बस  अपनो के साथ सी मीली