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Showing posts from July 25, 2021

बेरुखी क्यों है

परेशां है परेशानी बता तो बेरुखी  क्यों है  जो गुस्सा है तो गुस्सा हो मगर ये बेरुखी क्यों है  रिश्तों की कहाँ सीमा कहाँ उम्मीद मरती है  सजा है मन उजालों से मगर ये बेरुखी क्यों है  टूटी होगी मर्यादा कहाँ सम्बन्ध छूटे  हैं  वो मन में प्रीत है सबके मगर ये बेरुखी क्यों है  न तुझसे कोई शर्ते हैं न तोड़े तू कोई बंधन  वो देखा है समर्पण सब मगर ये बेरुखी क्यों है  इबारत चाह की कब है जीवन के पड़ावों पर  समय कब रुका सबको मगर ये बेरुखी क्यों है  जानता हूँ नहीं कुछ भी जो तुझको रोक पाऊ मैं  साथ तेरा  रहा सदा मगर ये बेरुखी क्यों है 

मैं अभिशापित

 मैं अभिशापित प्रश्न रहा हूँ जीवन ने जब उत्तर ढूंढें  साथ चला है सब कुछ सब कुछ मंजिल आते दूर गए हैं  बहा कहीं मैं खिसक गया हूँ  था स्थिर सा काट दिया हूँ  जीवन भर मर्यादा तुझसे तू सरयू का नीर रहा है  लड़ा कहीं मैं घिरा गया हूँ  था मैं अकेला चुना गया हूँ  जीवन भर ये रहा समर्पण  तू व्यूह का वीर रहा है  चाह कहीं मैं साथ रहा हूँ  था साथ सा अलग रहा हूँ  जीवन भर एक आशा तुझसे  तू जीवन का कृष्ण रहा है  मैं अभिशापित प्रश्न रहा हूँ जीवन ने जब उत्तर ढूंढें  साथ चला है सब कुछ सब कुछ मंजिल आते दूर गए हैं

मन की आवाज़

 है मन की वो आवाज़ जो रुकने नहीं देती कभी  तु साँस का क़तरा मेरा जो तु गया तो मै नहीं  है पृथा का पार्थ तु कर्मो की कीर्ति का धनञ्जय  है विजय की वीरगाथा अग्नि का प्रकोप तु  उत्तरा का भय निवारण द्रोण का अभिमान तु  तु मेरा हर साथ है गांडीव की झंकार तु  मैं ब्युहरण सब पार लूँगा साथ रहना तु जरा  जयकाव्य एक इस प्राण का रचना है तेरे साथ में  है गोप का हर साथ तु जमुना की गायों का संरक्षक  है दुर्पादा की लाज तु कुरु राज का प्रकोप तु  कौन्तेय का आरोही रहा तु गोवेर्धन धारी रहा  तु अग्रदूत मेरा रहा और मार्ग का संस्कार तु  मैं व्याधिता को लाँघ लूँगा साथ रहना तु जरा  द्वारका इस प्राण की रचनी है तेरे साथ मै है मन की वो आवाज़ जो रुकने नहीं देती कभी  तु साँस का क़तरा मेरा जो तु गया तो मै नहीं 

ज्वार मनों के

 रात रात भर तुझको लिखा बरसों से यूँ साथ रहा  आस जगायी तोड़ भी दी कभी कभी मन को यूँहीं मार दिया  इस जंगल जो आग लगी है पुरवा ने फैलाया है  सावन की रिमझिम बौछारें भिगो गयी कभी बहा गयीं राह राह भटका है मन ये घट घट ठोकर खायी है  नदी उफनती रहा है दर्शन बरसाती से नालों सा   अपने तट पर घाव किये और फैलाया जीवन को है   इस पयोधि का जो खारापन है उन आसुओं ने बढ़ाया है  ज्वार मनों के उठे जहाँ भी लहरों से यूँ दूर हुआ  पत्थर पत्थर टकराया मन ये घुट घुट आंसूं  पीये हैं तरंग तरंग हिलोरे खाता छलक छलक छलका है मन  अपने को तुझमे बिसराया और समाया जीवन को है  रात रात भर तुझको लिखा बरसों से यूँ साथ रहा  आस जगायी तोड़ भी दी कभी कभी मन को यूँहीं मार दिया 

तुझे परवाह हो न हो

 तुझे  परवाह हो न हो मेरा संघर्ष मुझसे है  रहम की बात कब थी ये मेरा स्नेह मुझ तक है  दीवारों पर लगी काई तारों पर बढ़ीं बेलें  ये मन तुझसे मुक्कमल है तेरा निर्माण तु जाने तेरा ही घर दीवारें भी तु मालिक तु तेरा निर्णय  सजा दे काई बेलों से या नव निर्माण तु कर दे  मनों की ढेर इच्छाएं रिश्तों की  चहरदारी  ये मन तुझ तक ही रहता है तेरा निर्वाण तु जाने  तेरा ही डर तेरी शर्ते तु सोचें तु ही समझाए  निभा दे सारे रिश्तों को या झरोखों को निगाह देदे  आधी सी कई शामें कई बातें अधूरी सी  ये मन तुझको ही सुनता है तेरा निर्योग तु जाने  तेरा ही शक तेरी चिंता तु शंका तु ही बतलाये  अपना दे मन की चाहत को या फिर से तु कहीं चल दे  तुझे  परवाह हो न हो मेरा संघर्ष मुझसे है  रहम की बात कब थी ये मेरा स्नेह मुझ तक है

अमूल्य कर गयी

 दिनभर लाखों बहाने है काम के आज भी  पर तेरे हिस्से की रात खाली गुजरती है  रातों  को छोटा करती वो लम्बी बातें  दिनों को हफ्ते में बदलकर अमूल्य हो गयी  लाखों बहाने हैं खुश रहने के यूँ तो  पर तेरे हिस्से की मुस्कान छुपी सी रहती है  कुछ न कहती रोग अवरोधक बनती वो बातें  हफ्तों को महीने में बदलकर अमूल्य हो गयी  लाखों बहाने हैं दुनिया से दूर रहने के  पर तेरे हिस्से का एकाकीपन मन बस गया  खुद से खुद को मिलती वो तन्हाई  बरस को सालोँ में बदलका अमूल्य हो गयी  मिलना बिछुड़ना रीत रही है जग की  वो छोरों पर खड़े जीवन को अमूल्य कर गयी 

एक समर्पण मेरा भी

 एक समर्पण तेरा देखा  एक समर्पण मेरा भी  हम गंगा के देश से एक अंजुरी भर संकल्प सही  लाखों नगर बसे तीरों पर लाखों जन की आवत है  धामों में तु एक रहा है द्वार हरी का  तुझसे है  अर्पण तर्पण करके देखा आशाओं की पौध खिली  ब्रह्मकमल तु रहा है मन का बाबा सा आराध्य वोही कुछ इच्छाएं कल्क वासना मैलापन जो मुझमे है  संगम शुद्धि तुझसे है तु देवो सा प्रयाग रहा है  पिण्डन मुंडन करके देखा प्रीत यहाँ तक लायी है  सरस्वती सा निराकार है  फिर भी साथ बहा है तु  त्याग परिश्रम पोथी पुस्तक ज्ञान अधूरा मुझमे है  जन्म मरण अब तुझसे है घाटों का अवधूत बना है   बैरागी सन्यासी सा था आस यहाँ तक लायी है  औगड़ सा ही रहा था ये मन तूने अनुराग सिखाया है  खोना पाना तुझसे होगा बात विचार और निर्णय भी  तु सम्पूर्ण रहेगा मन में आधे जीवन का पर्याय बना  एक समर्पण तेरा देखा  एक समर्पण मेरा भी  हम गंगा के देश से एक अंजुरी भर संकल्प सही 

वो सूरज देखता है

 हो ढलता हो वो सूरज देखता है  मेरी यादों को वो मन पिरोता है  सोचता मुझे कहता है सोच से  याद की किताब यूँ सजी है शाम से  वक़्त जा रहा पर है  थमा जरा  मेरा वो प्रकाश मुझ तलक रहा   ।  हो हो ढलता हो मेरी आँखों से देखता है जग जरा  आधा सा ही है मन है बसा सदा  उम्र जा रही पर है  थमा जरा  मेरे मन का चैन मुझ तलक रहा। । हो हो ढलता हो मुझसे लड़ता है मुझको ही मनाता है  वो मेरा है सदा मुझसे दूर है कहीं  पास आ रहा पर है  थमा जरा  मेरे मन का दर्द मुझ तलक रहा। । हो हो ढलता हो बांटता है सब राह भी दिखता है  वो मुझमे है सदा खुद से दूर कहीं  साँस सा रहा पर है  थमा जरा  मेरा हमसफ़र मुझ तलक रहा। ।   हो ढलता हो वो सूरज देखता है  मेरी यादों को वो मन पिरोता है