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Showing posts from March 31, 2019

अब

मान था सम्मान था गर तु छोड़ देता स्नेह सारा या कि प्रेम त्याग घृणा सभी, यूँ सहानभूति और सच्चाई से दूर अब तेरी जरूरत नहीं तेरा वो  रूप ढह गया जो माफीनामा लिखवाता था वो तेरे पास खींचता था ये सुंदरता आकर्षित न कर पायेगी अब तेरी जरूरत नहीं कमी होगी जीवन मै उदास रहेगा मन कभी प्रेम के अश्रुस्राव हो भी जाये तो क्या तेरा ये रूप याद कर लूँगा चल अब तेरी जरूरत नहीं 

जाते जाते

ये नफ़रत वाला रिश्ता  तुने  सुलगाया है ना पूरा डूब पाया  न कभी भूल पाऊँगा  लोग कहते रहे कि  इन्सान विचारों से नीच होता है और तु सब कुछ  साबित करता गया  यूँ तुझे भुलाना  आसां तो नहीं  पर जाते जाते तु स्नेह के सब रंग धो गया 

जा

जो हुआ सो हुआ ये स्नेह मरा अच्छा हुआ सच मे पत्थर ही रहा तु आज सम्मान उठ गया अच्छा हुआ पता न था तेरे मेरे बीच का तनाव यूँ इन्सानियत मार जायेगा  सच में द्रोण सा ही रहा तु फिर एकलव्य का सौदा कर गया आज तेरे खबरी की  खबर सच लगी पहली बार वो विश्वास कम रहा बदलना तेरी नियत थी  मै खा-मो-खां आस के पेड बोता रहा होगी तेरी अपनी शर्तें  मै अपने मूल्यों पर जिया हूँ  बदलना तो सभी को था पर तेरा ये भी रंग था, उम्मीद न थी 

तु भी तो शुरु कर

तु अगर पितामह है प्रतिज्ञा की तो यहां भी बरबरिक हूँ  देखेगे तेरे स्वाँग कब तक कभी तु भी तो शुरु कर मन मे स्नेह रहेगा सदा सम्मानों मे तेरे कमी न होगी बोलती नज़र कब तक चुप रहेगी  कभी तु भी तो शुरु कर मन पढ लेता है वो रिक्त वाले शब्द सुन भी लेता है अनकही शिकायतें  मानते तो होगें लोग पर पत्थर नहीं कभी तु भी तो शुरु कर ऐसे तो जमा होंगे कुछ ख़ाली कल अपनो की यादों मे कड़वे अहसास  आने वाले कल की कुछ धूमिल यादें कभी तु भी तो शुरु कर 

सूनापन

घर का सूनापन क्या होता है बहन कभी विदा की हो तो भाभी कभी मायके गयी हो तो या फिर खूँटी डाल दरवाज़े पर माँ पूजा करने मन्दिर गयी हो..... मन का सूनापन क्या होता है तेरे चेहरे पर कोई भाव नहीं हो पास खडा हो पर दूर रहा हो  या फिर तु विचार शून्य हो .... भीड़ मे ख़ालीपन क्या होता है  बचपन के दोस्त साथ नहीं हो जब अपना सा कोई रूठा ही हो और तेरे लिए भवनाओ का अस्तित्व न हो 

तेरा शक

किसको समझाना था यहाँ  किससे मेल मिलाप था स्नेह तब भी सिफ़र था  और भावनाएँ शून्य भी  मैं आस में था चाँद के जो बिखेर दें स्नेहता बर्क बनकर बरसा है वो  उम्मीदों की इस झोपड़ी पर  आज भी जब देखता हूँ  उस आसमा की ओर  निर्मल दिखी वो आकाशगंगा  जो अब भी सबसे दूर है।  एकाकी ही जिया है जीवन उम्मीदों के इन जंगलों मे तेरा भी शक लाज़मी है   निस्वार्थता होती कहाँ है ?

परिभाषा नहीं रही

तेरे पास होकर ये महसूस होता है तु कब दूर गया था मन से  हर पल तु ही था विचारों मे हाँ ये बन्धन कभी परिभाषित न कर पाया तु ही था जो मन को खुशी दे गया हर नाराज़गी के बाद मन जीत गया लाख कोशिश की हों तेरे अपनो ने  पर भूल कर तेरी हँसी को फिर हंस नहीं पाया 

कुछ बातें

वो जो अप्रकाशित रही रचनाऐं मेरी वो कविता बस तुम्हारे लिये ही लिखीं  मन की कुछ कथायें मन मे सजोये क़लम आँसुओं की कभी चली ही नहीं । वो गीत जो कभी गुनगुनाये नहीं  मन की आवाज़ बनकर दबे रहें  मौनमयी ही रही वो भाषा हमेशा  वो संगीत स्नेह का कभी बजा ही नहीं । वो विश्वास जो कभी बन नहीं पाया किसी ने तोडा किसी ने कुचल दिया ग़ैर ही रहे भावनाओं के सम्वाहक  कभी सही बात इधर से उधर पहुँची नहीं 

बदला तो है

जो मुस्कुराहट पहचान थी कभी  वो जो मज़ाक़िया मिज़ाज था  हर दौर मे अल्हड़ ही था ये जीवन और तु जताता है कि बदला ही क्या है  रौंदा न है कभी विश्वासों को जकड़ा नहीं कभी मोहपाश मे  हर माहौल मे खुल के जीवन की आदत और तु जताता है कि बदला ही क्या है ये सोच रही थी पहाड़ों के पास ही  खुले मन से उड़ा हूँ हर आसमान में वो ख़ुशबू स्नेह की फैलायी थी हरदम और तु जताता है कि बदला ही क्या है 

तेरे जैसे

सोचता हूँ  क्या रह गया आधा अधूरा  ये मन की ख़ामोशी है  या विग्रह का गीत है  तुझसे नाराज़गी के बाद जीवन अब ख़ामोश ही है  कभी सोचता हूँ कि झुक जाऊँ  कहीं ख़ामोशी फासले ना बढ़ा दे  पर तुने कब मुझे नज़दीक माना तो तुझसे दूरियों के बाद ख़ुद से नज़दीकियाँ भी ख़ामोश है कहना देखना सुनना जो लाम पर है नज़र जता ना पाती कुछ भी होंठों से हँसी नदारत है यहॉ  वो क़दम शायद ही ठिठकते हो कहीं तेरे साथ रहकर हम भी तुझ जैसे हो गये   

पास रहा तु

उछले पानी का सा रुप लिये धवल चाँदनी सा जगमग यूँ बसा रहा तु मन मे हरदम  हिमालयी झीलों मे प्रतिबिम्ब सा मेरी छन्दों से दूर कविताओं मे  आस का कोई गीत सा  यूँ रचा बसा है जीवन मे घने जंगलों मे सूरज की एक किरण सा रिश्ता नहीं है कोई फिर भी अपनापन मन से मन का कोई मिलन सा  यूँ तो रहा दूरियों मे हरदम तु  पास लगा इस सागरतट पर मेरा हिमालय सा .....

सौदा था

तु ही तो जिसने मन घेरा था अपनो के बीच विचारों मे तेरा डेरा था वो जो अपनापन था हमारे बीच वो न तु रख पाया न मैं रख पाया। तु ही था जिसपर अनकहा विश्वास था अपनो से दूर अपनो सा कोई रिश्ता था  सम्मानों के उन रोशनदानो पर जो जाले है  कुछ तुमने बुने है कुछ मैंने बुने है  तु ही था यहाँ जो नज़रों मे दोस्त था  जिसके लिये हर बन्धन पर खुला द्वार था उन रिश्तों को कौन कब अपबित्र कर गया ये तेरे लिये भी धोखा था मेरे लिये भी सौदा था