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Showing posts from February 2, 2020

गुनगुनाता रहा

दरारों दीवारों पहाड़ो के पार कदम  बढ़ के थम तो गए है कहीं मन दरिया सा फिर भी बहता रहा वो समुन्दर जब मेरे पास आने को था जतन से फिर फिर बनाता गया तुम जो मिटाने की कोशिश करते रहे कोरी उम्मीद तब भी सजता गया जब वो सूरज मेरा अस्त होने को था चला था जो दो पग, रुखसत हुआ वो अब भी यूँ नजरें गड़ाये रहा छंदों मै पिरोया गया जो कभी मन रुक-रुक के वो गुनगुनाता रहा 

कथानक

जिस कहानी का कोई कथानक न था उस कहानी की एक भूमिका लिख गया द्वार अब भी  कभी खटखटाये नहीं मन के मंदिर में वो फिर भी बसता गया जब भी आवाज़ दी मन के उस मौन ने आँसुओं की कोई बहती नदिया मिली चलते चलते जहाँ डगमगाए कदम राह उनको मिली अपनी मंजिल गयी जब भी मन द्रौपदी बनके आवाज़ दी दोस्त अपना कोई कृष्ण सा ना मिला हाथ फैलाके सर्वश्व त्यागा जहाँ मन की इच्छा वहीँ जागृत हो गयी 

गहराती छाँव

तु साथ लगा उन चेहरों मे जिस भीड़ मे तु साथ नहीं तु साथ लगा उन शामों में जिन राहों में तु पास नहीं तेरा नाम दिखा हर पन्ने पर उस किताब में तेरा जिक्र नहीं तु याद रहा उन बातों  में जिनसे तेरा कोई सरोकार नहीं तु पास रहा हर उत्सव-क्षण मे सूने मन में गहराती छाँव रही सबकुछ पाकर भी खोया जिसको उस गुमनामी का खौफ नहीं 

समुन्दर और पहाड

वो तेरे समुन्दर के शाम की धूप  जो मेरे पहाड की सुबह से मिल जाये  कुतुहल की गुज़ारिश हों  वो शहर अपना हो जायें  वो तेरे रेत की मलंगं शामें  मेरे पहाड की गुनगुनी सुबह हो जायें विश्वासों की जो बारिश हो मन फिर बच्चा हो जायें वो तेरे समुन्दर की खिलखिलाती हँसीं  जो मेरे पहाड की लज्जाई सुबह हो जायें वो अपनापन फिर से हो कहीं  फिर वो गाँव बस जायें 

गहरी रही

  दूरियाँ की खिड़कियाँ थी मचान पर कभी चढ़ा नही  कारवाँ को देखता रहा कभी साथ में चला नही सपनों  की सोच पर  पडा रहा वो अदृश्य था  आसपास ही लगा सदा  कभी पास वो चला नही  सम्मान के शिखर पर  डटा रहा डिगा नही  विश्वास की एक नींव है  गहरी रही कभी दिखी नही 

दास्ताँ

हर वो जिसे लिखने को कलम अब  भी चलती है वो दास्तानें क्या कम थी  जो शहर  विरान कर गयी