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Showing posts from March 1, 2020

कहीं तेरे लिए

साथ के नाम पर तुम कहीं भी न थे  वक़्त जब भी मिला हम पे हँसते रहे  जिस डगर पर तुम साथ दे ना सके  उस डगर पर चले सिर्फ़ तेरे लिये  बात के नाम पर तुम तो चुप ही रहे  हमसे जब भी मिलें  दूर जाते रहे  उस जलसे में तुम साथ दे सके जिस जलसे में रहे सिर्फ़ तेरे लिये  दोस्त के नाम पर तुम तो रुठे रहे  वक़्त जब भी मिला ग़ैर के हो लिये  जिनको तुम तो कभी छोड़ ही ना सके  उनको छोड़ा भी है  सिर्फ़ तेरे लिये  

तुझ तक

वो धूप शहर की तुझ तक थी वो शाम सुहानी तुझ तक थी  किताबों के ढेरों के पीछे  वो  नज़र झुकती तुझ तक थी  वो चाह अपनेपन की तुझ तक थी  वो शर्म हया भी तुझ तक थी  रह गयी जो बात अनकही वो दबीं भावना तुझ तक थी  वो बीच बहस आदत तुझ तक थी वो बोली बिनबोली तुझ तक थी कुछ न पाये जिससे बात मन की वो हिम्मत जबाब देती तुझ तक थी 

ज़िद

रिश्तों की कमजोर नींव पर ये जो सीमित संवाद है ज़िद उसे बचाने की है  जिससे हर बार हारना चाहा  सरहदों की ख़ून होती मुढेंरों पर  ये जो अधधुले पदचाप हैं  ज़िद उससे जोड़ने की है  जिसने हर बार तोड़ना चाहा  स्नेह की सूखती नदियों पर  ये जो विश्वासों के तटबन्ध हैं  ज़िद उसे रोकने की है  जो कब का छोड़कर चला गया 

कह दो

तुमने मुझसे बात  न करने की  क़सम खाई तो है अपने लबों से भी  कह दो गुनगुनाना छोड़ दो  तुमने मुझको याद  न करने की बात कही तो है अपने मुस्कुराते होंठों  से भी कह दो फैल जाना छोड़ दो तुमने मेरे लिए  न सजने की बात कही तो है  अपने आईने को फिर  से कह दो इठलाना छोड़ दो तुमने मेरे लिए न मन जगह कोई बनाने की ठानी तो है पर गुमसुम ख़्यालों से कह दो  तुम पर हक़ जताना छोड़ दो

हम तुम

कभी तुझे मनाता रहा कभी तुझसे ग़ुस्सा रहा अकेले ही चला उस राह  कभी स्नेह रहा कभी भूला दिया  कभी तुझे जताने की मन्नतें  कभी दूर जाने की कोशिशें अकेला ही हँसता रहा  कभी एकाकी रहा कभी खामोश रहा  कभी तुझे अपनो के बीच कभी तु पराया में गिना गया अकेले ही रिश्ता बनाता गया कभी जोड़ता रहा कभी तोड़ता रहा 

संदेह के जाल

नादां था ये मान बैठा  कि कुछ तो असर था  स्नेह की क्यारियों का बबूल जसतस ही था जिसे तु संजोता रहा हर बार मेरी हार पर  उस संदेह के जाल को बहेलिया ही तो लाया था  सोचा था कि कुछ झूठ  गहरे दब गये होंगें   दिवार जो टूटी लगी थी दो मनों के बीच !!