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Showing posts from February 9, 2020

तेरी मेरी

मैं कविता गीतों से तेरी  याद साथ में लाया हूँ  छन्दों को समरुप बिठाकर फ़सल विश्वास की रोपा हूँ  मैं खट्टी मिट्ठी मेरी तेरी  यादों की  माला लाया हूँ  ख़्वाबों के झूले पर झुलाता उम्मीद साथ चलने की लाया हूँ  मैं तेरी मेरी आधी अधूरी  दोस्ती की दांस्तान सूनाने आया हूँ कुछ भुली कुछ बिसरी यादें  सब याद दिलाने आया हूँ 

अनायास

जो लब बिखर जाते हैं अकेले में  वही सौग़ात मेरी तु मन में दबाये है दूरियों मे रहना एक अलग बात है मन के पास तुझे पाना यूँ अनायास नही है उन फूलों मे कहीं मेरा ज़िक्र आया होगा उस डूबती नाँव ये मेरा ख़्याल आया होगा नाराज़ मुझसे रहना ये अलग बात है चलते हुए कदम ठिठकना यूँ अनायास नही है  हर खुशी में उदास दिखाया वो चेहरा उस नाराज़गी में भी डबडबाया होगा  हरपल मुँह फेर लेना ये अलग बात है  तेरे अपनो मे मेरा ज़िक्र आना यूँ अनायास नही है 

कहाँ है

न तु पूछेगा न बतायेगा जानता भी हूँ मानता भी हूँ  पत्थरों में आवाज़ नही होती  पूजा फिर भी उन्हें ही जाता है  न तु देखेगा न दिखायेगा हताश भी हूँ निराश भी हूँ  हर नीड़ में जीवन नही होता  आस फिर भी उन्हीं मे ढूँढीं जाती है  तु न आयेगा न बुलायेगा  समझता भी हूँ समझाता भी हूँ  स्वप्नों मे सदैव  सच्चाई नही होती फिर भी उन्हें देखने से डरना क्या  

कुछ तो है

कुछ तो है जो छुपाता है असहज है या अनजान  यूँ तो तु अजनबी बनकर ही रहा सदा  जो पूछूँ  तु बतायेगा नहीं  नज़र फेरना आदत ही रहीं  यूँ तो तु अजनबी बनकर ही रहा सदा  डोर के छौर हैं कसमकश  टूटती नही एक ओर खींचने से  यूँ तो तु अजनबी बनकर ही रहा है सदा  कहीं किसी कोने का विश्वास मरने नही देता भावनाओं तो  यूँ तो तु अजनबी बनकर ही रहा है सदा  मतलब के होते रिश्ते  तो मुमकिन था जीतने की चाह होती  यूँ तो तु अजनबी बनकर ही रहा सदा 

बुनियाद

जो खामोश रूठा  ही रहा हर वक्त उसके इशारों को समझना भी मुश्किल डूबती नाव और पदचाप छोड़ते निशान आखिर समुन्दर में गायब हो ही जाते हैं जो सहमता ठिठकता ही लगा हर वक्त उसके उठे कदमो को समझना मुश्किल झुकती नजरें और गुमशुम रहे अहसास सवालों की कोई पहेली दे ही जाते हैं जो कुछ कह ही न पाया किसी वक्त उसके हिलते अधरों को पढ़ना मुश्किल खामोश मन और उचटता सा विश्वास आशाओं की बुनियाद कमजोर कर ही जाती हैं 

जाने को था

सुना था अचानक  वो जाने को है  शहर ये भी विरान करने को है  दर्द ढुढता रहा अपनेपन के निशाँ वो आधा अधूरा सफ़र ही रहा  हुआ था अनायास अहसास भी वो असर झुकती नज़रों का ही रहा  कदम ढुंढते रहे मंजिल के निशाँ  वो बनता बिगड़ता मकां ही रहा  चला था बहर जो यादों की देकर वो कुनवे में हरपल ही शामिल रहा  मिटते उतरते गये रिश्तों के निशाँ  वो मन का कोई ख़्वाब सा ही रहा