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Showing posts from February 23, 2020

दर्द का कोना

तुझ जैसा बरसों में  एक  चाँद ज़मीं पर उतरा था  भीगीं पलकों को ज़ब देखा सूखा दर्द का रोना था  तुझ जैसा अपनों में एक  गुमशुम खोया चेहरा था  तेरे ज़वाबों को जब ढूढां  खोया अर्ज़ का बाना था  तुझ जैसा आईनों में एक  धूमिल शक्स पुराना था  खोला जब यादों का पिटारा पाया दर्द का कोना था 

चल बाँट लेते हैं

चल फिर बाँट लेते हैं  मन्दिर मेरा मस्जिद तेरी मिश्रा मेरा ताहिर तेरा  जयचन्द तुम्हारा हम्मीद हमारा  चल फिर बाँट लेते हैं  गोधरा और गुजरात को  कश्मीर और बंगाल को औवेसी  और कलाम को  चल फिर बाँट लेते हैं  शाह और सुल्तान को मीर और पीर को  रहीम और कबीर को चल फिर बाँट लेते हैं  कविता और ग़ज़ल को  अजान  और आरती को या  हिन्दी और उर्दू को चल फिर बाँट लेते हैं काबा और अयोध्या को धोती और कुर्ते को या टोपी और गमछे को  चल फिर बाँट लेते हैं खिचड़ी और बिरयानी को गाय और सुअर को या कि खीर और शैवाईयां को  चल फिर बाँट लेते हैं दुप्पटे और हिजाब को जुलाहे और किसान को या पान और तम्बाकू को  चल फिर बाट लेते हैं हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को ज़मीं और माटी को माँ बहन की आबरू को  चल फिर तु शाहिद बाग़ और नौखाली कर जश्न कर मैं बालाकोट, मन्दिर और तीन तलाक़ का जश्न करूँ चल तु भी हैवान हो जा मैं भी हैवान हो जाऊँ  तु ईद पर गले न मिल मैं दिवाली की मिठाई न बाँटूँ  चल मैं पत्थर उठाऊ तु भी बम गोले उठा  तु मुझे मार डाल मैं तुझे मार डालूँ  या कि चल तु भी इन्सान बन जा मैं इन्सान बन जाऊ अमन के हिन्दुस्तान में खुशी का पैग़ाम बन

आयेगा

यूँ रात के इस पहर में बारिश की ये दो बूँदें  ही  काफ़ी थी ये जताने के लिए  कि अब तु न आयेगा  यूँ बाढ़ मे घिरा छटपटाता तृण को  बहते देखना ही काफ़ी है ये मानने के लिए कि अब तु न आयेगा  यूँ गुमनाम सोचना तुझें  इस रात की कालिका में काफ़ी है ये मानने के लिए  कि वो चाँद फिर भी आयेगा 

दूरियाँ यूँ रही

उतार दिया उन्हें कागज पर  जो बातों का सिलसिला चला ही नही  लिख डाले कई अहसास  जो कभी किसी से बयां किये ही नही  दूरियाँ का आलम ये रहा  चला तो बहुत दूर पर तय हो नही पायीं ख़ामोशीं की चादर यूँ फैली  ओढ़ी तो सही मगर हर ओर से छोटी ही लगी  रिश्तों  का घेर ऐसे उलझा कि जो सबसे पास है वो बहुत दूर ही रहा  क़िस्से कहानियों में सब अटका हकिकत जो रही वो ओझल ही रहा 

मक़ाम

वक़्त खटखटाता रहा द्वार  पर तु अभी तक न आया  कौन जाने मुहाने पर खडा वक़्त फिर सबकुछ मिला दें  दिनों से सुनने को बेक़रार  क्या पता कि तु कह जाये  कौन जाये परायों के शहर में कोई फिर नया मक़ाम हो जायें ख्वाइशों के उँचें पड़ाव की  कोई कड़ी शेष न रह जाय कौन जाने तेरी दुवाऐं साथ हो और फिर कोई गाँव बस जायें