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Showing posts from May 19, 2019

तुझे क्या लिखूं

तुझे क्या लिखूं चमकता हिमालय या खिसकता पहाड़ गिरता सा सौरम्य झरना या बहती सी नदिया तुझे क्या लिखूँ फैला आसमान या संकुचित दरिया सतरंगी रंगो का इंद्रधनुष या आधा चन्द्रमा तुझे क्या लिखूँ बचपन का वो जुगुनू या झील की शंखपुष्पी कस्तूरी की मृगतृष्णा या सहरा की मरीचिका तुझे क्या लिखू अलसायी सी बेल या भूली सी डगर यादो की कोई पहेली या संग चलती कोई परछाई ...

अधूरी कहानी

खेतों की पंगतो पर कोई खाली सी क्यारी अस्तित्व ढूंढ़ती रही स्नेह की ये अधूरी कहानी पहाड़ो की चोटी पर देवताओ के 'थौल' सी स्थान ढूंढ़ती रही सम्मान की ये अधूरी कहानी बुग्याली झुरमुटों के 'भूडों' पर कोमल एक बेल सी मन को ताकती रही अपनेपन की ये अधूरी कहानी घूमती-घुमाती पहाड़ों पर लम्बी सड़को सी कभी न ख़त्म होगी दूरियों की ये अधूरी कहानी ....

मौजूदगी

साखों के पर्ण भी तो गिरते हैं झरनों के स्रोत भी तो सूखते हैं पहाड़ की प्रलय देखी हैं मैंने पर विश्वास को मरते नहीं देखा बिखरता हैं नैपथ्य में बहुत कुछ सँवरते हैं कारवाओं के बाजार भी जानता हूँ, अपने ही तो रूठते हैं पर सच्चे रिश्तो को मरते नहीं देखा चुप हैं जो वो बहुत कुछ कह जाता हैं असीम शांति में भी तूफ़ान बढ़ा जाता हैं जानता हूँ अपनेपन की परवाह दूरियों से आंकी नहीं जाती 

जीवन और तु

यूँ पहाड पर स र्दियों की सुबह  धूप आने का इन्तज़ार किया है  ग्रीष्म मे जाती किरणों के साथ अनगिनत अठखेलियाँ का वादा किया है  कभी बालू के मैदान मे दरिया किनारे चुपचाप ताज का दीदार किया है  घनघोर रातों मे जुगनु  के साथ जीवन की रोशनी को तलाश किया है सेहरा की रेत पर मृगतृष्णा सी खोज बे-आश बीजों को ज़मींदोज़ किया है  लम्बे रास्तों मे चहुँओर भटकने के साथ मंज़िलों के आग़ाज़ों को अहसास किया है  तु इसी दौड़ का अनकहा सा स्पर्श है  इन्तज़ारी मे चुपचाप पनपता बीज है  तमन्ना के ताज को पाने की लालसा किसे तु ख़ुशियों मे साथ देता कोई अपना सा लगा है 

परेशान ‘मन’

तु जो कभी ख़ामोश है  तु जो कभी उखड़ा सा है  ये कसक है रिश्तों की  या ‘मन’ यूँ ही उद्विग्न है  तु ख़्यालों मे खोया सा है तु मलालों मे जीता सा है ये नाराज़गी है स्नेह की या ‘मन’ यूँ ही निराश है  तु एकाकी सा हो चला  तु भावो को छुपाता सा चला  ये दूरियाें का कशिश है तुझे  या ‘मन’ यूँ ही परेशान है ...

अब भी हैं

सबका अपना अपना अभिमान है  झूठी बातों की प्रतिद्वन्द्विता  है सुनि हुई बातों के ला़क्षन हैं  मन साफ़, दो बार साथ बैठना कभी  खाई अविश्वासों की भरती ज़रूर है  सबका अपना अपना जीना भी है ख़ामोशियों से भरी एक सोच भी है  कानों मे बलबताते मक्खियों की घूं है  मन साफ़, दो बार साथ बैठना कभी स्नेह के रिश्तों का असर अभी भी है सबका अपना अपना रास्ता भी है काटों से भरा संघर्षों का जीवन है  सोचने को प्राथमिकताओं की झडी है  मन साफ़, दो बार साथ बैठना कभी हज़ारों हँसने के बहाने अब भी हैं 

विश्वास

सूरज है साक्षी जिसका  ऋतुओं मे जो फला-बढ़ा है  उंचें पहाड़ों सा धैर्य लिए  वो विश्वास कहीं कम ना हो जायें सींचा है जिसको एक बीज सा पाला है जिसको दाना चुगकर अब पीपल सा रुप लिए  वो विश्वास कहीं कम ना हो जायें झरने जिसकी छवि लिए झीलों सा विस्तृत है वो  नदियों सा प्रवाहित रहा जो वो विश्वास कहीं कम ना हो जायें तरुवेला पर कलियों जैसा खिला साखों पर बेलों सा चिपटा तुझको मुझको बाँधे है जो  वो विश्वास कहीं कम ना हो जायें

वो जो हैं

जो मन मे हों  उनकी तस्वीरों से कुछ नही होता  मन जिसे हक़ीक़त मान बैठा हो वो ताबिरों मे नही होता  जिसको पाना लक्ष्य न हो उनको जीतने का मन नही होता मन जिसे अपनो सा मान बैठा हो  वो खोना, हारना नही होता जिसको खोने से मन डरता हो उनको अपनाने की कोई कारण नही होता वो जो मन के पास हो सबसे  उन्हें याद करना का कोई बहाना नही होता     

यहाँ

यहाँ पुरस्वार्थ जीता है कपट से दूर हैं कर्म भी जो था मन में जता डाला कभी दोगला जीवन नहीं जीया संघर्ष था अपने मूल्यों का सुरक्षा, आत्मसम्मानो की मानी हार, थी जहाँ गलती कभी जीतने के लिए नहीं माना वो  उजाला  पास था सबसे कभी अँधेरा डरा  न पाया उसे खोना और पाना क्या जो मन के पास था सबसे 

उसे क्या दिखाना

गर्भ में पलता विश्वाश धीरे ही जन्म लेता है अन्धविश्वाशो में ही पला हो जो कब स्मृतियों की छाप छोड़ पाया होती हैं लाखों साजिशें सत्य को मार देने की जो झूठ की बुनियाद पर ही खड़े हों वो खोखला रिश्ता कितनी दूर चल पाया और जो मन में हो उसे क्या दिखाना जो दिखाने में है वो भला कब मन की गहराइयों को छू पाया 

झकझोर गया

वो हवा के झोकों में गैहू का लहरना वो बरसाती 'गदेरों' के शोर में पहाड़ का बोलना और मन को झकझोर गया वो भीड़ में तेरा गुमशुम रहना वो नए घोसलों में चिड़िया के बच्चो का चहचहाना वो बसंत की थाप में नई कोपल खिल जाना और मन को झकझोर गया वो चुपचाप तेरा मुस्कुरा जाना वो पतझड़ में पत्तो का पेड़ का साथ छोड़ जाना वो बरसाती गदेरों का फिर सुख जाना उन घोसलें के पंछियों का फिर उड़ जाना और मन को झकझोर गया तेरा यूँ चुपचाप निकल जाना ....

तेरा आना

जब से खुद को सीमित किया तुझे छोड़कर सब से बाहर हुआ  अतीत के कुछ पन्ने फिर खुले  राह से भटकी क़लम फिर दौड़ पड़ी  तेरा असर यूँ तो मन को एकाकी कर गया नेपथ्य के सारे चित्र फिर रंग गया  खोये से इतिहास मे फिर जीने लगा हूँ  ज़िन्दगी फिर सही राह पर चल निकली  जानता हूँ तेरा जाना फिर सब दोहरायेगा  कभी आसूं तो कभी परेशानी दे जायेगा  तु साथ था ही कब पर जानने लगा हूँ  तेरी नाराजगीयों से फिर सासें चल निकली