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Showing posts from February 16, 2020

स्वप्न

सुबह ताजगी कर गया बरसों  में तेरा एक स्वप्न  मन तुझ तक चला गया देहरी पर थे अधखुले नयन  झाँका जिस ओर तु पास था खिला मिला गमले का कमल  न छूटा न तो अपनाया गया  पर पास लगा है ये बन्धन  दुनिया रही हो साथ मगर हर वक़्त रहा यूँ तेरा मनन सोचा किसे भी तु पास मिला झलकता रहा तेरा मधुर स्पन्दन 

मधुरिम प्रीत

कभी वो परायापन  फिर तेरा अपनापन  डगमगाता ही रहा  ‘टूख’ पर अटका मन किताबों के सूखे फूल  स्मृतियों की मधूर  धूल  ताज़े से लगने लगे मन को घेरे कुछ शूल सम्बन्धों की स्वर्णिम रीत रचते बसते स्वरचित गीत कुछ अपनी सी लगने लगी  अपनो सी वो मधुरिम प्रीत

अँकुर

वो अभी और भी गुमशुम  होगा, मैं शायद और भी  याद आऊंगा शोर से भरे शहर में  कोई कोना फिर भी खामोश होगा  वो अभी और दूरियों में होगा  मैं शायद फिर भी पास ही रहूँगा  खामोश किसी राह पर कोई दर्द फिर भी कराह रहा होगा  वो अभी भी औरों के असर में रहेगा  मैं शायद फिर भी अकेलेपन में रहूँगा  सुनसान किसी भावना में  कोई अँकुर फिर भी प्रस्फुटित होगा 

जब से तु पत्थर हुआ

जब से तु पत्थर हुआ है  तब से पूजा और गया है एक नास्तिक को तुमने  आस्तिक सा बना दिया है  जब से पतझड़ आया है तब से आस और जगी  सुखे से एक रेगिस्तां में बसन्त की फिर बहर चली है जब से तु दूर गया है तब से नज़दीकियाँ बढ़ गयी है  जो शायद रहता था कुछ दूरी पर अब वो मन मे बसने लगा है 

पढ न पाया

यादों की देहरी पर मन फिर कुछ लिख न पाया  मेरे चार शब्दों का जबाब तेरे दो शब्दों से आगे बढ़ न पाया सीमाओं के संसार में मन घेर-बाढ़ लाँघ न पाया  मेरे चीख़ते विचारों का जबाब तेरे खामोश होंठों पर ढूँढ न पाया  ठहरकर मुड़ जाता है मन पदचापों की आवाज़ भूल न पाया प्रश्न अनेक जो अनुत्तरित ही रहे   उन आँसुओं में जबाब पढ न पाया  

न हुआ

ख़ामोशी को ओढ़कर  न तु खुशी छुपा पाया  न ग़म ही ओढ़ पाया  सम्मानों के सतह पर अड़ा रहा न वो दिवार गिरा पाया  दूरियाें का लम्बा बहाना  न भावनाएँ मार पाया  न विचार शून्य कर पाया वहमों के बाज़ीगर का साथ रहा न वो अहसास मार पाया  कोशिशों  का सहारा न तुम्हें भूला पाया  न मुझे ही सुला पाया  जग साथ सा लगता रहा  न वो उदासी मार पाया 

मौन था

कभी वो चला गया  कभी मै रोक न पाया वक़्त था कि  कभी ठहर न पाया   दो शब्द उसके न निकले  कभी मैं ख़ामोशी मे  रहा  अहसास था कि  कभी मरा न पाया कभी वो रुठ गया  कभी मैं मना न पाया विश्वास था कि  कभी टूट न पाया  कभी वो चुप रहा  कभी मैं कह नही पाया  नज़दीकियाँ थी कि कभी दूर जा न पाया कभी वो बह न पाया कभी मै किनारे जा न पाया  दरिया था वो कि कभी थम न पाया  कभी वो अघूरा रहा  कभी में पूरा कर न पाया मौन था वो कि कभी गुनगुना न पाया