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Showing posts from July 7, 2019

उन छापों से

कहनी जो थी बातें तुझसे  मन के अन्दर ख़ामोशी से  गीत अकेलेपन का गाती हैं भीड़ मे भी बेहोशी से  देखता हूँ कहीं दूर तुझको मन के बन्द झरोखों से  देख लेती है आँखें सबकुछ  घुप जीवन के अन्धेरों से  सुननी थी जो बातें तुझसे आँसू के झलकते उन झरनो से  मन पर कोई थाप छोड़ गयी गीली पलकों के उन छापों से 

दर्द सुहाना

तुम क्या जानों पत्थर के पूजन का क्या मतलब होता है  तुम क्या जानों खोने का  जो दर्द  सुहाना होता है तुमने जाना पत्थर होना  तुमको आया दर्द लिखाना  तुम क्या जानों धरती की पीड़ा का क्या मतलब होता है  तुम क्या जानों रोने का  जो दर्द सुहाना होता है  तुमने जाना सीना गुंथना तुमको आया आस छुड़ाना  तुम क्या जानो पेड़ों के आँसू का क्या मतलब होता है तुम क्या जानों ग़ज़लों का जो दर्द सुहाना होता है  तुमने जाना छोड़के जाना तुमको आया ना साथ निभाना

अब भी

उस बसंत का कोई कोना मन में अब भी खिलता है नदियों के संगम सा कोई आकर मन से मिलता है सुनसान पड़े बाज़ारों में अब भी मन से टकराता है मिस्री के ढळले सा कोई आकर मन में घुलता है लाल 'बुरांस' के फूलों जैसा मन को आग लगता है काजल के सेहरां सा कोई अब भी आखों को सजता है सुनी पड़ी हवेलियों में कोई अब भी मूरत जैसा लटका है स्याह पड़े इस अमावस में अब भी गीत मिलन के गाता है 

कचोटता लगें

खामोशियाँ जब गुमनाम होने लगीं सिसकियाँ जब दम तोड़ने लगीं   यकीं है तू फिर रुलाएगा यादें जब धूमिल होती लगीं हर कोशिश जब हारने लगीं मंजिलें जब छुपने लगीं यकीं है तू दौड़ा आएगा हर कदम जब रुकने लगें कौतूहल शहरों का शांत सा लगें सन्नाटा जब बोलने लगें यकीं है तू आवाज़ देगा वीराना मन का कचोटता लगें 

तुम हम

तुमने पूछा नही हमने बताया नही  मन की शंका  आँसुओं का दर्द  विश्वास का साथ  एकाकी मक़ाम  तुमने थामा नही  हमने झलकाया नही अपनो की नाराज़गी  ग़ुस्से की वजह  लोगों की सूगबुगाहट नजरों का झुकना जीवन का संघर्ष सफलताओं के मक़ाम  तुम साथ चले नही  हमने साथ छुड़ाया नही 

क्यों चुप हो

क्यों चुप हो वो गिने चुने शब्द नही हैं या कि मौन हैं  ये खामोश सोच अक्सर तुझ तक ले जाती है या कि वहम पाले हैं। क्यों कमी में अपना कोई सम्पूर्ण लगता है  या कि कोई नही हैं। ये खोया ‘मन’ किसी को सोचता सा लगता है  या कि भटका कहीं है ।

अपनी सी लगी

ख्वाहिशें बहुत तो नहीं थी गेसुओं का भी यकीं न था वो हंसी की छोटी सी झलक जब देखी अपनी सी लगी उड़ के देखा है सरहदों के पार घरोंदों की 'मन' को चाह न थी उन उठती नज़रो की कसक जब चुभी अपनी सी लगी सहचर बनकर चलना कब था सांसों की आहट पास नहीं थी ठिठकते क़दमों की आवाज़ जब सुनी अपनी सी लगी ढोल की थाप अपनी कब थी पास बुलाती कोई तस्वीर न थी दूर का वो जुगुनू कहा गया वो बुझती रौशनी भी अपनी सी लगी 

दुआओ की मुराद

जब वक़्त कभी बोलेगा तो सुनूंगा सब  हवाऐं फ़सल लहरायेंगीं कान लगावूंगा तब  वजूद बनाया है दोस्त! सुनी सुनाई बातें असर नही करती कोई मुड़कर देखेगा तो रूकुंगा तब  नदियाँ स्नेह की बहेंगी तो उतरूँगा तब  एकाकी ही रहा हूँ दोस्त  झुंड मे सांसो की आदत रही नही है कभी  कोई पूछेगा खरीयत तो बताऊँगा सब मेरे पहाड़ों सा दिखेगा कोई छांव मे सुस्ताऊँगा तब  जानता सब हूँ दोस्त! पहाड का नसीब और दुआओं की मुराद नही होती

तेरे मेरे बीच

ये तेरे मेरे बीच की सरहद ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ है  खूंन हुआ है भावनाओं का तो क्या सम्मान मनों मे ज़िन्दा है  तेरे मेरे बीच की बातें ख़ामोशी का जहान है  बोल न पायी संवेदनाऐं तो क्या  एहसास मनों मे ज़िन्दा है  तेरे मेरे बीच की दूरी ज्यूँ धरती आकाश है  मिलें न हो गले तो क्या  टीस मनों मे ज़िन्दा है 

इस क़दर

वो फैला रहा इस क़दर  जीवन के हर मोड़ पर अपने सागर से मेरे पहाड तक  यादों की हर डगर पर  वो दिखता रहा इस क़दर  जो पा न सकूँ हर मंज़िल पर  अपनी ख़ामोशी से मेरी बकवास तक बातों के हर असर पर  वो सोच मे बसता गया इस क़दर  जो मिला अनगिनत बहर पर  अपनी सीमाओं से मेरे स्वच्छन्द आकाश तक  दायरों के हर द्वार पर 

किस क़दर

ओ शब्दों! तुम उसे बता देना  कि बिछुड़ने की ‘बणांग’ ने  जलाया है ‘मन’ को किस क़दर  वो संगीत जो छूट सा गया अब सुना तो नैपथ्य मे बजता लगा रुलाया है ‘मन’ को किस क़दर  वो रोशनी जो प्रज्वलित कर गयीं  बर्क बनकर गिरी है ज़मीं पर सुखाया है ‘मन’ को किस क़दर  आशा के टीले फिर भी टूटे नही है बिछड़े तो हैं पर रुठे नहीं हैं  इन्तज़ार है ‘मन’ को किस क़दर