Posts

Showing posts from July 28, 2019

न तेरा न मेरा

जाने का ग़म यूँ तो नही  खुशी पलभर की ही तो थी  अपना था कौन राह-ए-गुज़र  मंज़िल यहीं उदास थी  थमता लगा जो राह-ए-शहर नदियाँ वो अपनी बहती लगी  सोचा जिसे वो राह-ए-बहर  रुकती कोई साँस थी  तेरा नही न वो मेरा हुआ  करता रहा बस ये नादांनियां  संम्भाला जिसे वो दर्द-ए-जिगर न तेरा हुआ न मेरा कहीं 

दिन आम नही

जिसने पिछले साल  भेजी थी  मित्रता दिवस की शुभकामनाएँ  वो अबके खामोश था  शायद, परख लिया होगा यूँ आम तो हम भी न थे  जिसने दुपट्टे को थामा था अदब से रिमझिम बरसा था जो कभी  वो अबके सावन सूखा ही रहा  शायद, बरखना भूल गया होगा यूँ तो हर बारिश मे भीगे हम भी नहीं थे  जिसकी झुकती नज़रों मे  पायी थी सम्मानों के समुन्दर की गहरायी वो अबके सतह पर ही दिखा शायद, अदब वो भूल गया होगा यूँ तो नज़र सबसे हमने भी मिलायी नही  थी

तु नदारत था

जिसे तेरे लिए सोचा था अब अपने से शुरु किया उत्साह उमगं बरक़रार था  पर फिर तु नदारत था  जिस मंच तेरा हाथ होना था अब ख़ुद से चढ़ना  पड़ा  मंज़िलें वहीं खड़ी दिखी  पर फिर तु नदारत था जिस महताब को साथ देना था अब अकेला ही बढ़ना है  भीड़ फिर एक बार वहीं दिखी और तु था कि नदारत था 

अच्छा लगा

बढ़ चलो अब बहुत हुआ दीदार को तरसता लगा चलचित्र के पट पर कुछ बदलता अच्छा लगा कब तक खामोश बैठोगे ख्याबों को सोचता लगा रास्तो की मज़िलों पर कुछ ठिठकता अच्छा लगा वक्त के साथ जो गहरा हुआ जताता रहा छुपाता रहा जिंदगी के 'केनवास' पर रंग उकेरता अच्छा लगा

तेरे जैसे हैं

वक़्त कब अपना हुआ समय कब थमता लगा वो सब भी तेरे जैसे हैं दो घडी रूककर चल दिए दिवशावसान के छौर पर रात्रि के इस पहर में ये काल भी तेरे जैसे हैं इस उहापोह में खामोश हैं मन में उजाला हैं बहुत घनघोर काली रात हैं ये पक्ष भी तेरे जैसे है जो साथ हैं पर दूर हैं 

कोशिशें करता रहा

जब आवाज़ खामोश हो जुबाँ कुछ कहना चाहे और नज़र तुझे पढ़ना चाहे ऐसे मे भी ये मन सदा गूंगा और अनपढ़ ही रहा.... आशाएँ अन्नत होती हैं विचार हर दिशा घूम आते हैं ख्याब कुछ देखना चाहे ऐसे मे भी ये मन सदा एकटक तुझे सोचता ही रहा .... समय सब दिखा जाता हैं कलम सब लिख जाती हैं कहना जब हो बहुत कुछ ऐसे में भी ये मन सदा गुमशुम संभलने की कोशिश करता रहा 

बेगानों सा रहा

वो बहुत घाटे का सौदा था जहाँ भीत बनकर धोखा था  वो जो खाईयां गहरी करता गया तटबन्ध थामने का जिसपे ज़िम्मा था  वो मन की सबसे बड़ी दौलत थी  जो गश बेहाली में भी अपनी थी  वो अपनो सा तारो को जोड़ता गया  जो यूँ तो हर बार बेगानों सा ही रहा  वो अकेलेपन की सुनहरी यादें थी  जो तेरे रास्तों पे अक्सर भटकती थी बार बार चौखट पर दस्तक देता लगा जो यूँ तो दूर से हर बार घूरता मिला

तु वजह रही

फ़ुरसत हो न हो यहाँ  विचारों मे भी फ़ज़ीहत हो मन से दूर कब हो पाया तु हर जश्नों की वजह मेरी  क़िस्मत साथ हो न हो यहाँ  महनत मे जंक सी लगे  न होना भी हौसला देता रहा तु हर ख़्बाव मे शामिल रहा  क़ुदरत नाराज़ सी तब लगी जब तेरी पलकों को भीगोया था वो दिन आख़िरी था शंकाओं का तु तब से अपनो सा ही लगा