Posts

Showing posts from May 16, 2021

जताता नहीं

 मैं जगाने लगा उसको जिद में मेरी  हर पहर जो बंधा एक सीमा मै था  बांटते बांटते रुक ही जाता है वो  मानता है जरा पर जताता नहीं  मै कहने लगा अति की सीमा मेरी  थोड़ा चुप सा रहा मुस्कुराता लगा  लिखते लिखते जरा रुक ही जाता है वो  चाहता है जरा पर जताता नहीं  मैं सताने लगा और शरारतें मेरी  थोड़ा हंस सा गया और सहता लगा  कहते कहते जरा रुक ही जाता है वो  सुनता है जरा पर जताता नहीं  जानता हूँ सभी सीमाएं तेरी  तोड़े बंधन नहीं जाते हैं कभी  बात की बात हो तो गले मिल भी लें  बढ़ता है जरा पर जताता नहीं  ऊँचे बढ़ते रहें हो वो मंजिल तेरी  राहें हों  संग संग चल भी तो अभी  हाथ मै हाथ दे दो कदम चला है वो  भरोशा भी है  पर जताता नहीं 

निर्झर मन थी

  वो जो गुमशुम रहा है सदियों भर  जाने क्यों  रंग दिखाई न दिया  वो धवल श्वेत निर्झर मन थी  मैं कहाँ रंग चढ़ाता सा रहा  वो जो जरीदारी रही मन पर  जाने क्यों बंदिशें लगी हमको  वो सुगम मंद हवा मन की  मैं कहाँ रूप एक रमाता सा रहा   वो जो दरबान से रहे प्रीत पर  जाने क्यों हम समझ नहीं पाए  वो  सरल वास्ता था इस मन का  मैं कहाँ उल्टी डगर चलता ही रहा  वो जो अलग छाप थी मन पर  जाने क्यों हम गले लगा नहीं पाए  वो खड़ा था सीधे से उस रस्ते पर  मैं कहाँ चार पड़ाव रुकता ही रहा 

तु एक मन्दिर है

 ख्वाबों का एक मन्दिर है मूरत सी रखी तेरी उसमें उस नदी किनारे पीपल पर ओढ़ी है लाल चुनर मैंने  उन माँ के काले धागों को बांधा है नज़र बचाने तक  वो पीपल तेरा साया है वो धागे तेरे अस्क रहे  तु मन में रमाया है ऐसे बचपन की मीठी यादों सा  आ फूल कोई खिलता देखें वो भंवरा भर ले माचिस पर  चिड़ियों के चूजों को दाना और जुगुनू को आटा देदें  सरसों के पीले खेतों में चल ठोर ठिकाना यूँ कर लें जुगनू की चमक दिखी तुझमे फूलों सी वो एक कोमलता  उन लाखों सपनो के जैसा तु मिला है फिर इस जीवन में  आ स्वान को लेकर दौड़ चलें वो बछड़ा खोल लें खूटें पर  चल चढ़ें वो ऊँचीं डाल प्रिये और साथ तेरा ये निश्छल मन  सावन के झूलों पर झूलें और खो  जाएँ अपने सब गम  ऊँची डाल का सपना तु वो बछड़े सा थोड़ा नटखट  उन पावन सलोनी यादों को तु फिर लेकर आया जीवन में  तु पूछ लें तु कौन मेरा तेरा क्या छाप रहा इस जीवन पर  तु हार जीत से बढ़कर है  तु बचपन का हर एक स्वप्न मेरा  आ घुल मिल जा इस जीवन में खुशियों की 'डोज़' बढ़ा साथी  सब कुछ तुझसे माँगा है सबकुछ तुझसे चाहा है  ख्वाबों का एक मन्दिर है मूरत सी रखी तेरी उसमें

मन के विश्वाश पर

 जब भी बिखरा हूँ मैं रेत सा रहगुज़र  नाम तेरा लिखा और सिमटता गया  राह फैली थी जब भी वो खामोशियाँ  जिक्र तेरा किया मन वो मदहोश था  यूँ तो लम्बा चला एकतरफा मगर  साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।।  जब भी भूला हूँ खुद को गुमशुम हुआ  तेरा चेहरा था ख्वाबों में पहचाना गया  हर तरफ था वो फैला अँधेरा मगर  जिक्र तेरा किया मन वो रोशन रहा  यूँ तो खो सा गया था तू इस भीड़ में  साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।।  जब भी बातें कही खुद से चुप ही रहा  अब जो बोला हूँ मैं बोलता ही  रहा  लिख रहा था कोई पढ़ न पाया मगर  एक तूने पढ़ा शब्द सार्थक हुआ यूँ तो मुश्किल था कहना कुछ भी मगर  साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।।  एक है आरजू सुन तु मन की जरा  अब जो बाहें खुली हैं समां जा यहाँ  सब तरफ थी वो खुशबू बिखेरी हुई  एक आँचल तेरा मन को ढक सा गया  यूँ तो बंधन जो लाखों निभाने को हैं  साथ आजा मेरे मन के विश्वाश पर ।। 

कमी सी लगी

  वो कमी सी लगी आज बातों में भी जिसकी आदत लगी है अभी रोज भर  यूँ तो बरसों तुझे गुनगुनाता रहा अब अकेला लिखा जाता है नहीं  वो तो अब भी मैं यूँ बड़बड़ाता रहा कोई आवाज़ आयी है मन से कहीं  यूँ तो बरसों जिसे सिर्फ तकता रहा अब अकेला चला जाता है नहीं  वो तो आलाव थे यूँ जले ही रहे दूर थी एक लौं जो कि जलती रही  यूँ तो बरसों मशालें लिए क्रांति की अब अकेला लड़ा जाता है नहीं  वो जो पाया न था दूर ही जो रहा एक विश्वाश था पास आ ही गया  यूँ तो बरसों जले दीप आशा के हैं अब अकेला जला जाता है नहीं  वो जो मेरा नहीं जानता हूँ सदा आज उसने भी सबकुछ दिया है मुझे  यूँ तो बरसों से तुझपर है हक़ एक सा अब अकेला जताया जाता नहीं 

बाह पसारे

 दिनों दिनों से सालों तक एक  लम्बा  रास्ता टोहा है  नदियों के संग चला मैं बहकर उबड़ खाबड़ रास्तों पर  ये तय था मुझको मिलना था अपने उसी समंदर से  बरसों खड़ा रहा जो ताकता बाह पसारे चुप-चुप के  सकुचाई शर्मायी बेल वो कोने सिमटी देखी है   हाथ पकड़कर मेरा मुझसे हाथ छुड़ाती रहती है  जेहन की बातें सुनकर वो दूर खड़ी हो  जाती है  मन की सुन ले जब भी अपने बांह मेरे लग जाती है  अब भी कोलाहल है मन में तूफान उमड़ते देखा है  एक लहर जो पास आने को बरबस आतुर दिखती है  एक तरफ सब त्याग हैं उसके वापस मुड़ने को कहती है  खुद नाराज़ रही बरसों वो मुझे मानने लगती है  मन जीवन में अमृत भर वो गीत मिलन समझाती है  तोड़ न दे सीमाएं खुद की  मुझको कानून पढ़ाती है  वह सकुचाई छुई मुई सी खुलकर थोड़ा सा कहती है  डरी रही सहमी वो बरसों अब मुझे समझाती रहती है 

सांसो की खुशबु

इन सांसो की खुशबु में तु बसा हुआ है दिन भर  स्पर्श रहे वो मौन आलिंगन रचे लगे इस तन पर  तु  गंगा पावन है मेरी रमी रही इस तन मन पर  जुग के दाग धुले से पाए जीवन के इस पथ पर  सांसो का गहरा होना और आवाज कोई दे जाना  उन हाथों की पकड़ रही या मन का कोना कोना  तुम माँ का जंगल सा लगा हर हिस्से का हक़ अपना   सब कुछ पाया सा लगता है जीवन के इस पथ पर  तेरे मन का एक समर्पण पाट गया खाई सब  कदम बढ़ाया एक ही है मीलों आया मंजिल पर तु मंदिर की मूरत सी लगी छाप गयीं अंतर्मन पर  सब कुछ नया नया सा लगता है जीवन के इस पथ पर