मन के विश्वाश पर

 जब भी बिखरा हूँ मैं रेत सा रहगुज़र 

नाम तेरा लिखा और सिमटता गया 

राह फैली थी जब भी वो खामोशियाँ 

जिक्र तेरा किया मन वो मदहोश था 

यूँ तो लम्बा चला एकतरफा मगर 

साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।। 



जब भी भूला हूँ खुद को गुमशुम हुआ 

तेरा चेहरा था ख्वाबों में पहचाना गया 

हर तरफ था वो फैला अँधेरा मगर 

जिक्र तेरा किया मन वो रोशन रहा 

यूँ तो खो सा गया था तू इस भीड़ में 

साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।। 


जब भी बातें कही खुद से चुप ही रहा 

अब जो बोला हूँ मैं बोलता ही  रहा 

लिख रहा था कोई पढ़ न पाया मगर 

एक तूने पढ़ा शब्द सार्थक हुआ

यूँ तो मुश्किल था कहना कुछ भी मगर 

साथ पाया तेरा मन के विश्वाश पर  ।। 


एक है आरजू सुन तु मन की जरा 

अब जो बाहें खुली हैं समां जा यहाँ 

सब तरफ थी वो खुशबू बिखेरी हुई 

एक आँचल तेरा मन को ढक सा गया 

यूँ तो बंधन जो लाखों निभाने को हैं 

साथ आजा मेरे मन के विश्वाश पर ।। 

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण