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Showing posts from July 17, 2022

जमीं मेरी

 दरकता सा पहाड़ हूँ  खिसकती सी जमीं मेरी  बहूँगा संग नदिया रे ! मेरा अस्तित्व ताखे है  हिमालय से रहे सपने  पिघलती सी जमीं मेरी  चमकूँगा संग रौशनी रे ! मेरा रोशन अँधेरा  है  बढ़ता सा शहर हूँ मैं  घटती सी जमीं मेरी  जानूँगा संग दर्पण रे ! मेरा धुँधला सा दर्शन है  छिटकती शाम सेहरा की  ढलती सी जमीं मेरी  अपनाऊँ संग समर्पण रे ! मेरी पहचान तुझ तक है 

रूह की गाँठ

 कुछ अनजान रिश्तों में  रूह की गाँठ होती है  वही फेरे चुपचाप होते हैं  वहीँ सिन्दूर रचती है  कुछ फैले से सामान में  चीजें अनमोल होती हैं वहीं मन चुपचाप मिलते हैं  वहीं प्रणय की रात होती है कुछ अनकही सी बातों में  समझ गहरी सी होती है  वहीं सूनापन सा रहता है  वहीं तेरी कमी सी रहती है  कुछ अपठित शिलालेखों में  दुनिया दबी सी होती है  वहीँ एक कारीगर होता है  वहीँ एक सोच जगती है  कुछ सुनसान राहों में  मंजिल अज्ञात होती है  वहीं अपनापन सा होता है  वहीं एक शुरआत होती है  चलाचल सफर में राही मुझे दुनियां बसानी है  मैं जीवन भर तकूँ जिसको  वहीं मंजिल बनानी है

बहूँ संग में

 लहरों  से अपनी लौटकर आ  मैं बिखरा हूँ रेती किनारे तेरे  आगोश में ले भींगो ले मुझे  मैं कण कण बिखरता बहूँ संग में  खुशियों से अपनी सिमटकर के आ  मैं फैला हूँ गठरी को खोले तेरे  आगोश में ले समाकर मुझे  मैं पल पल सिमटता रहूँ संग में  जड़ों से अलग तू खिसककर के आ  मैं जमता हूँ मिट्टी पकडे तेरे  आगोश में ले छुपाकर मुझे  मैं क्षण क्षण रगंता रहूँ संग में  शाम ओ शहर रात कटती नहीं  कदम दर कदम इस सफर संग में