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Showing posts from July 14, 2019

क्या क्यों

कभी सोचता हूँ  कि क्या लिखूँ  कभी सोचता हूँ  कि क्यों लिखूँ  वो अनपढ़ ही रहा  न स्नेह पढ़ पाया  न भावनाऐं लिख पाया कभी सोचता हूँ  कि क्या जताऊँ  कभी सोचता हूँ  कि क्यों जताऊँ  वो भावहीन ही रहा  न अपनापन रख पाया  न नाराज़गी जता पाया कभी सोचता हूँ कि क्या बताऊँ  कभी सोचता हूँ कि क्यों बताऊँ  जानता वो सब है  न नज़रों मे रख पाया न नज़रों से गिरा पाया

मिलती बिछडती

हम नदियाँ के दो छोर हम आदि अन्त के वासीन्दें  जुड़े रहे तत्व अवशेष से  हम अजनबी चाल मे फँसे परिन्दे हम खिंचतान के दो छोर हम अपने परायों की कड़ी  सम्मानों से जुदा नही हैं हम दुविधा की जलती लड़ी  हम आस निराश के दो पहलू  हम पत्थर पर कोई चोट बड़ी  स्नेह अपराजिता से हार न मानी हम मिलती बिछडती एक पाती 

मन की वैदेही

वो मन की वैदेही है  जो जली नही है किसी आग मे  प्रवाह प्रचण्ड मे बही नही है   थमी नही है किसी राह में वो मन की वैदेही है  जो नही चली है संग राह में  प्रतिबिम्ब मन की दूर नही है  चमक नही है फीकी मन में  वो मन की वैदेही है  जो  नही मिली  है कांधा जोते  अस्थि कलश सी तत्व नही है  भूली नही है किसी मकां मे  वो मन की वैदेही है  जो सींची नही है सीना चीरे  खोद ज़मीन जो उपजी नही है  पनपी है जो अँकुर स्नेह बीज मे 

ये दिन वो नहीं

झूठ ही सही सजों के रखी हैं कुछ यादें हर दिन वो खास नहीं होता जिस दिन तेरा अहसास नहीं होता आशंकाए ही सही मन को हंसाती है कुछ यादें हर दिन युहीं गुजर नहीं होता जिस दिन तेरा जिक्र नहीं होता दूरियां ही सही नजदीक रखती है कुछ यादें हर दिन 'मन' मुस्कुराता न होता जिस दिन तेरे खोने का मलाल न होता ये दिन वो नहीं सही फिर भी याद आती है कुछ यादें हर दिन जश्न यूँ मानता न होता जिस दिन तेरे से यूँ अपनापन न होता 

सुलगता गया

एक आग है धधक रही वो ग़ुबार जो उठता गया यादों के झुरमुटों में  एहसास बस लुढ़कता गया एक रंग है अबीर का चढ़ता गया सजता गया पूजन की थाली में  वो दिया बस जलता गया  एक जंगल है स्नेह है  बढ़ता गया कटता गया  हर आग की तलाश में  वो ‘भुण’ बस सुलगता गया

वहम है

तु जब खामोश रहता है षड्यंत्रों के असर मे होता है शंकाओं की उहापोह यहाँ भी है वहाँ भी है तु लाचार सा दिखता है विश्वासों मे क्यों वहम होता है  ग्रहणों का प्रभाव यहाँ भी है वहाँ भी है  तु भी उस भीड़ मे है  खुद के विचारों को मरते देखा है  उलझन की दीवार यहाँ भी है वहाँ भी है  तु भी उसी निशान पर है तीरों से अपने को भेदते सहा है  द्वद की खींचतान  यहाँ भी है वहाँ भी है 

पलायन

वो नदिया जो बह चली फूल सब मुरझा चले बसन्त से पतझड़ तक हर मौसम जो गुज़र गया बादल वो सब उड़ चले धूप सहरा मे फैली है  बंजर होती ज़मीं पर  आस की फ़सल अभी बाक़ी है   हिमनद सब पिघल गये  पहाड जो विरान है  पलायन की मार पर  तेरे हर फ़ैसले का इन्तज़ार है 

हर

तु हर छोटी बात मे है  तु धरती ‘आगाश’ मे है  सोये मन के कोने में तु हर धड़कन हर साँस मे है तु हर पल हर विचार मे है  तु मन के हर संताप मे है सावन के भीगे झुरमुट में तु हर स्वभाव हर काज मे है तु हर क़दम हर जगह पे है   तु गुपचुप हर नमन मे है  एकाकी शाम और चहचहाती सुबह तु हर दिन के हर पहर मे है  तु हर बात हर ज़िक्र मे है  तु खोती हुई हर मिशाल मे है ‘जानता तु सब कुछ है’ तु हर नज़र के हर सवाल मे है 

जानता हूँ

  वो दरीबे तो सज नही पाये तो ये पहाड भी पूरे टूट नही पाये  जानता हूँ तु शुरु नही करता पर ख़त्म भी तो कुछ हो नही पाया हिमालय की बर्फ़ गलती देखी है ख़त्म होती तो नही देखी  जानता हूँ तु दूर ही खड़ा रहेगा पास आती दिन की परछाईं नही देखी ठुठरती बिलबिलाती गौरैया देखी है  पंख फैलाकर रुकती भी तो नही देखी  जानता हूँ तु उड़ ही जायेगा कहीं  हर जगह बैठने को डाल तो नही होती

यहाँ वहाँ

यूँ तो सब कुछ ठहरा सा है कुछ है जो बह सा चला है स्मृतियों के कगार पर  दस्तक देती वो यादें  यहाँ भी है वहाँ भी है  यूँ तो जीवन जीते ही हैं कुछ है जो कमी सा लगता है  मन की खूँटी पर  रुकी कुछ सांसे यहाँ भी हैं वहाँ भी हैं यूँ तो मुखौटे चारों और हैं पर अपनो से कम ही लगते हैं स्नेह की क्यारियों पर  सूखे हुए कुछ फूल यहाँ भी है वहाँ भी है 

बोझ

जितने बहाने  दूर जाने  के थे  उतने ही मौक़े  पास आने के थे  ये अलग बात है  कोशिशें दोनों तरफ़ सिफ़र ही रही  तेरे रास्तों की मंज़िलें मेरे मंज़िलों के निशाँ  कहीं मिल भी जाय  तो क्या  वो ख़ामोशी में तरसती शाम  पलकों की नमी रोकें बरसने के बोझ में  मन मसोडते रहेंगे