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Showing posts from April 5, 2020

निशाँ

जब भी मन से लगा दौड़ लूँ पास तक  तु दिखाता रहा दूरियों के निशां  बर्क बिखरी रही फिर भी सुखा रहा मन रंगाता रहा छिट के दो निशाँ  लौट जाने पे सूनी सी बस्ती रही  तु बुझाता रहा दीप के सब निशाँ  चाँदनी थी कहीं फिर भी स्याही रही मन जगाता रहा रात के वो निशाँ  खोली खिड़की कही साँझ के आस की  तु दबाता रहा आस के सब निशाँ  खाली कोनों मे ढूँढा जिसे हर पहर रात आयी बहा ले गयीं सब निशाँ 

मौन

मन की आवाज ने यूं पुकारा तुझे जब भी खामोश थे सोचते ही रहे  पास आकर जहाँ लड़खड़ाये कदम  वो कदम भी बड़े बस तुम्हारे लिये  मन में यूँ रुप को बस सजाया तेरे जब भी सोचा तो एक पावनता रही खोजा जाकर यहां भी उस स्नेह को वो स्नेह भी रहा बस तुम्हारे लिये  मन ने शाम-ओ-शहर यूँ पुकारा तुझे जब भी आवाज दी ना-सुनी ही रही बड़बड़ाया जहाँ बोलते मौन को  रहा मौन भी मन तुम्हारे लिये 

सन्देश

तु समुन्दर मैं पहाड ही रहा  कोई बह चला कोई खडा रहा  कोई रेत पर पदचिह्न बनाता  कोई दलदल में धँसा नीड़ रहा  तु लहरों में घूमता मैं रुका रहा  कोई भँवर में रहा कोई पार कर गया कोई खुली हवा  का झोंका रहा कोई जहाज़ पर अटका पंक्षी रहा  तु खामोश रहा मैं बड़बड़ाता रहा  कोई सुन गया कोई सुनाता रहा  पहाड़ों से आवाज़ टकराकर आती है खुला समुन्दर तेरा सन्देश लौटा ना सका 

सीख

उड़ा तो कब का जा सकता था पर पहाड जो धँसे रहे जड़ो में  समुन्दर की रेत में निशा बनाकर  मिटना भी नही सिखा  सोचा तो कुछ भी जा सकता था  पर मर्यादा रही गुमनाम रिश्ते की  सहेजकर  मन मे रखा है जिन्हें  भूलाना भी नही सीखा  चाहो तो सीमायें लाँघ सकता था  पर हिमालय रहा है विश्वास यहाँ  नज़रों ने गहरा संभाला है जिसे  उतारना भी नही सीखा