Posts

Showing posts from August 16, 2020

पत्थर

तब भी जब तु आया था तब भी जब तु चला गया  तब भी पत्थर ही था मैं  अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब   तुमने रुलाया था  जब  तुमको रुलाया था  तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब तुमने ठुकराया था जब तुमको अपनाया था तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब तु मुस्कुराया था  जब तुमको हँसाया था तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब जग हँसा हँसाया था  जब टूटा और तोड़ था   तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  घिसा नही हूँ झुका नही हूँ  उन आसूंओ में भीगा हुआ हूँ  यूँ तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  हों ठोकर या पूजा जाऊँ  फैंका जाऊ तोडा जाऊँ  तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  करूँ नव सृजन हर दिन हर दिन कुछ तरासा जाऊँ  यूँ तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं 

वो तीन रूपये के आम (लघु कहानी )

  वो तीन रूपये के आम  बात तब की है जब में कक्षा चौथी में पढ़ता था, घर से २०-२५ किलोमीटर दूर एक छोटे से क़स्बे भीरी के प्राथमिक विद्यालय में चाचा जी की स्कूल में पढ़ता था । वैसे तो मेरे गांव में और आसपास  स्कूलें थी पर चाचा जी के  प्रेम और माँ - बाबा की अच्छी शिक्षा की खातिर चाचा जी वाले स्कूल में दाखिला दिलवाया गया था । एक रूटीन था कि सोमवार कि सुबह घर से आते थे और शनिवार कि शाम हमेशा घर जाते थे । सप्ताह भर उसी छूटे क़स्बे के स्कूल में पढ़ाई , मकान मालिकिन बुआ के बच्चों गीता और रैबा के साथ खेलना,   क़स्बे कि नहर में नहाना और शाम होते ही चाचा जी का पढ़ाई की कुर्सी पर बैठना यही अक्सर दिनचर्या थी।  क्योकि चाचा जी उसूलों वाले मेहनती शिक्षक थे इसलिए क़स्बे भर में उनकी क़द्र थी और मुझे सबसे ज्यादा ही प्यार दुलार भी मिलता था।   जब भी सोमवार की सुबह घर से चाचा जी के साथ स्कूल के लिए निकलना होता था तो माँ अक्सर हाथ में दो रुपये रख जाया करती थीं जिसे मैं अक्सर अपने गुल्लक में जमा कर दिया करता था । एक सोमवार दौड़भाग में ज्यादा मनाने के लिए माँ ने पांच रुपये दे दिए ।  दो - तीन किलोमीटर जंगल के कम

स्नेह की याद

  ढ़ूढ़ता है मन कहीं प्रतिकार की आवाज जब  आ ही जाता है कहीं तु निर्मल सहृदय धार बनकर  खोता है मन कहीं कीकरों के सूखे रेगिस्तान में  आ ही जाता है कहीं तु नमी की बौछार बनकर  सोचता है मन कभी जो दूरियां कायम रहे  तु लिपट आता है देह पर स्नेह की याद बनकर  रहता है मन कभी जो द्वन्द की हर घाटियों में सीखा ही जाता है कहीं तु शांति का दूत बनकर 

विश्वासों के पुल

  गिर ही जाते हैं सब पत्ते एक दिन  सूखे पत्तो में ऐसे  जीवन तो नहीं  पूछ ही लेता हूँ वो चार शब्द फिर  जब भी लगा कि तु उदास तो नहीं  उन्मादों की लहरें सब बहा ले जाती है  कौन अहसासों की मुंढेर पर देर बैठा है किनारों पर खड़ा, देखना शुकूं देता है  विश्वासों के पुल जुड़ें रहें यहीं काफी है  नदी के बहने का दुःख कब किसे होता है  बहकर ख़ुशी देना उसका जीवन होता है  वो भॅवर एक छपछपी दे गया है जीवन को  यूँ हर बार डूबना कभी चाहता कौन है