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Showing posts from April 25, 2021

वो तो गुमशुम रहा

  हमने बरसों सजाया जिसे ख़्याब में  वो मुसलसल कहीं मन में बसता गया  मंजिलो का जहाँ कुछ निशां ही नहीं  रास्तों पर कोई रहनुमा मिल गया  एक आवाज़ थी जो कि आती रही  मन था टुकड़ों में फिर भी सजाती रही  खोने पाने का कोई इरादा न था  जितना मिलना था हिस्से का सब मिल गया  जो लगा  एकतरफा सदा साथ में  वो समान्तर  कहीं दूर चलता रहा  दूरियों में रहा वो तो गुमशुम रहा  मन के कोनों में संगीत बजता रहा  हमने बरसों सजाया जिसे ख़्याब में  वो मुसलसल कहीं मन में बसता गया 

रोना सा चाहता हूँ

  तु  बरसो बाद कहता है  तुझे ये डर सताता है  कहीं मैं तोड़ ना दूँ सीमा तु शायद ये समझता है  जिसने बरसो जगाया है वो अब देरी से सोता है  असर तुझ पर भी बरसों का अब थोड़ा सा दिखता है ।।   तु मन का वो शिवालय है जिसे बरसो नहीं देखा  ना माँगा है कभी तुझको तुझे पूजा मनों में है  जिसे बरसों उकेरा है वो अब लिखता मिटाता है  असर शब्दों का थोड़ा सा अब तुझ पर भी दिखता है ।।   न जाने क्यों मनों की बात अब खुलकर मैं कहता हूँ  वो शायद साथ है मेरे मैं जिस  पर गीत लिखता हूँ  नहीं रोया मैं बरसों से मगर अब साथ  जो तेरा  मैं रखकर सर तेरी गोदी में अब  रोना सा चाहता हूँ।। 

तुझे सांसों में रखता हूँ

  जहा शंका के बादल हों  तु फिर प्रश्न कर लेना  जो तेरे मन की न हो तो तु फिर नाराज़ हो लेना  हजारों बार लिखा है हजारों बार कहता हूँ  तु पावन मन हिमालय है तुझे सांसों में रखता हूँ  न खेतो में, पहाड़ो में,  न अब नदियों में बहता हूँ     मैं अपना घर समझकर तुझको अपने दिल में रखता हूँ  मनो ने  खिंच ली डोरी कि अब उड़ने से डरता हूँ  तु घर कि नीव है मेरी तुझे सांसों में रखता हूँ  न बातों में, ख्यालों में, न मन में  राग रख लेना  अजानों ने दिया तुझको, तु सब कुछ छीन कर लेना  मनों  में बज चुकी घंटी कि अब मंदिर से डरता हूँ  तु मन कि चाह है मेरी   तुझे सांसों में रखता हूँ  न पाने में न खोने में कुछ बर्बाद होने में  तु मन की आस है मेरी मेरी तुझे सांसों में रखता हूँ 

आज आवाज़ आयी

  उड़ते मन ने कहा आसमा लाँघ लूँ आज आवाज़ आयी वो छनकर यहीं  मन ने जिसको जहाँ में ढूंढा दरबदर  अंकुरित वो हुआ बीज गहरा पड़ा  जो छुड़ा ले गयी थी कभी प्रीत को  आज मन को वोही मेहरबां मिल गया   ख़ाली शब्दों ने जिसको तराशा कभी  आज पाती कोई प्रेम की लिख गया  तेरे सम्मान से कुछ भी बढ़कर नहीं  जानता हूँ सभी सीमाएं मेरी  मौन सोचे कभी आके मिल जा गले  मौन का  मौन से हो वो संगम कभी 

जाना फिर नहीं

  मैं कहीं लांघू कभी जो स्नेह की सीमाएं रही  तटबंध बनकर तू सदा आवेश ठहरना वहां ।।  टूटती हर दिवार पर कुछ लेप भर देना कोई  दो शब्द गढ़कर स्नेह के तुम रोक लेना घर यही।।  शोर हो किस बात का तो सुन के चुप रहना नहीं  कह भी देना  बात सब चुपचाप फिर जाना नहीं ।।  वक़्त सदियों सा लगा है लौटकर आना वहीं  थाम लेना हाथ फिर अब दूर जाना फिर नहीं।। 

वक़्त लगा

  मैं नदिया टेढ़ी-मेढ़ी थी  शांत समुन्दर बुला रहा था वक़्त लगा मिलने में जिससे   मंजिल उतनी अदृश्य नहीं थी  आलिंगन जब मन का हो तो  कुछ शब्द अधूरे रहते हैं  वक़्त लगा कहने में जिससे  स्पर्श सदा अहसासों का था  मन जब डर के हद को छू लें  खुद में खुद को कब पता है  वक़्त लगा दिखने में जिसको  वह परछाई भरी दुपहर थी