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Showing posts from April 19, 2020

जब भी

जब भी चली सरी ठौर समुन्दर  उतर कर पहाड़ों की पगडंडी से  पहचान धुली मन अपक्षय होकर बिसरी गयीं कभी जो अर्चित थी जब भी पहचाने लोग अजनबी अपने रिश्तों की ताबिरों से  द्वन्द बीच रहा मन संस्कारों के खो गयीं पहचान समेटी सी  जब भी पुष्प को छूना चाहा  कुछ काँटों ने हाथ छिलें हैं लम्बा रहा है संघर्ष जीवन का तु भी है उस सब परिपाटी सी 

खोयी थाती

तु भूली सी राह शहर की  मन पत्तों से ढकी डगर है  फिसलन खाती टेढ़ी मेढ़ी  मैं पहाड की खोती थाती  तु सोयी सी कुमुद दलों की आस तोड़ती फूल खड़ी है काँटें चुभती सूखी कडकडी मैं खड़ी सी रिगाल लंगलंगाती  तु काग़ज़ पर स्नेह की स्याही सुन्दर सपन लिखी कहानी  कोरे काग़ज़ पर बिखरी सी  मै रेतों की छिटकी बाती  तु रंगमंचों की परदादारी लटके झूमर में फैली चाँदनी  रातों के इन घुप्प अंधेरों में मैं आस की छत तांकती...

तु भी था

एक तु भी रहा है साथ मेरे घनघोर अन्धेरी रातों में  जग रोशन था उन राहों में हर एक समेटी यादों से । एक तु भी रहा है पास मेरे हर सुबह की पहली किरणों में मन विचलित सा उन राहों में हर एक अनूठी बातों से ।। एक तु भी चला है साथ मेरे हर भरी थकी दुपहरिया में  कभी बैठा था जिस छांव तले  हर सपनों की उम्मीदों से एक तु भी रहा है अपनों में हर रिश्तों की गरमाहट में  मन लगा रहा जिन रिश्तों की  हर एक सुहानी यादो में ।।।

क्यों मन ?

क्यों तु मन में रहता है  क्यों अपना सा लगता है चलती फिरती राहों का  क्यों सफ़र सुहाना लगता है? क्यों मन तुझको रखता है क्यों रिश्ता सा बुनता है विपरीत धार हैं नदियाँ के  क्यों इतना न समझता है? क्यों मन हँसता रहता है क्यों घोंसला सा बुनता है  सरहद है अहसासों की  क्यों लांघता रहता हैं ?

छांव-ओ-शहर

दो शब्दों में कहते हैं बातें सभी  बाक़ी मन से यूँही सूगबुगाते रहे  बात आगे बढ़ाने को कुछ भी था मन की दुविधा यूँही बस छुपाते रहे  रिश्ते जुड़ते रहे यादें छूटी नहीं  बाक़ी सीमा से आगे जा ना सके राह में कोई ठहराव था ही नही फिर भी छांव-ओ-शहर ढुढते ही रहे  यूहीं रिश्ते हमेशा से जुड़ते नही  कुछ तो होगा ये बन्धन मिटता नही  रास्ते सबके अपने हैं अपने रहे  फिर भी गुमनाम राहों में कोई नही  एक सुहाना ये अहसास पाया कभी मन में होगा, निभेगा, दिखेगा नही  गीत ग़ज़लों में यूँही लिखा जायेगा  फिर भी तु देख ले तो छुपेगा नही