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Showing posts from June 21, 2020

याद आयेगा

कभी अन्जान राहों का बटोही याद आयेगा कहीं ठुकरा दिया कोई वो पत्थर याद आयेगा ज़माने भर में घूमोगे वो मंज़र याद आयेगा कही कोने में सीमटा वो फसाना याद आयेगा  कही चुपचाप ढलता सा वो सूरज याद आयेगा  कहीं बदला मुडा कोई कदम फिर डगमगायेगा  बजार-ओ भर में घूमोगे वो ख़ालीपन सतायेगा कभी सूनसान राहों पर वो दस्तक याद आयेगा  कही टूटे मकामों का वो खंडहर याद आयेगा  कहीं सूने पड़े मन का बबंडर याद आयेगा  थककर हार बैठोगे निगाहों को भरम होगा  कभी गुमनाम क़दमों का वो चेहरा याद आयेगा 

अक्सर

ये सोचा कब था कि साथ हो  सामानांतर बह जाने कि ख्वाइशें अक्सर डुबो ही देती हैं उफनती नदी के वेग में  ये कब था कि पूजी जाय हर मूर्ति  पत्थरों को बोलते हुए देखने कि ख्वाइशें  अक्सर पत्थर बना ही देती हैं  भावनाओं के उदगार में  ये कब था कि पा लूँ सब कुछ  एकतरफा त्याग अपनाने की ख्वाइशें  अक्सर वैरागी बना ही देती हैं  समर्पण के सदभाव में 

हारा सा लगता हूँ

सफर पर विराम मिले  अब थका सा लगता हूँ  जी लूँ कुछ यथार्थ  वरना हारा सा लगता हूँ  जो गिने गए अपनों में  क्यों वीराने से लगते हैं कहना था सब कुछ जिनसे  वो गुमशुम से लगते हैं  राह अकेली राही था  साथ न तेरा माँगा था  साथ मिला जिनका पलभर  सब खोये से लगते हैं  जग से हारा हार न माना खुद से हारु ये डर है मानक शर्तें मुझ तक हैँ सब मुझे निभाने दे साथी !

यथार्थ

चल मन उतर आ कल्पना की दीवारों से यथार्थ की धरती पर छालें बहुत हैं  कल्पना के कोरे काग़ज़ों  के चित्र  बेरंग और और अमूर्त बहुत है