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Showing posts from January 19, 2020

सर्वभोम

जहाँ कभी विराम हुआ था सम्मान अभी भी उतना है जहाँ कदम वो ठिठक गए थे अहसास अभी भी उतना है बदली हर राहों में अब भी इंतजार तो उतना है छायादार खड़े पेड़ों में नीड बना खामोश रहा 'टूख़ः' कभी भी चढ़ ना पाया सूरज अब भी दूर रहा भीड़ रही है चारों ओर मन फिर भी शांत रहा जीवन का दर्शन है ये तो त्याग यहाँ सर्वभोम रहा पाने को मंजिल थी बहुत रुकना मन का विधान रहा जीतने को अम्बार पड़ा था हारना मन का त्याग रहा 

एक तेरे ही

एक तेरे ही बलबूते पर सपनों को सजाया है लांघे हैं पहाड़ वो सारे फिर दरिया को पाया हैं एक तेरे ही सुनने को ढोल ताश  बजाये हैं देखें हैं झरने वो सारे फिर शांतचित को पाया हैं एक तेरे से कहने को गीत गजल सब लिख डालें चढ़ी हैं खेतों की सीढियाँ   फिर "बुग्यालों" को पाया हैं कहने को तो नश्वर हैं सब फिर भी सपनों को सजाया हैं यूँ तो खानाबदोश ही रहे हमेशा फिर भी अपनों को पाया हैं