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Showing posts from March 8, 2020

वो बचपन

हर देहरी पर फूल चढ़ाता  वो बचपन जिया है हमनें  हर घर आबाद रहे ख़ुशियों से उन गीतों को गुनगुनाया है हमनें गैंहू की लहराती फ़सलों सा वो बचपन जिया है हमनें पुकारते सरसों की पीत्तिका से  उन तितरों को सहलाया है हमनें  दवाग्नि से बूरांस खिले देखें हैं  बु्ग्यालों के मख़मल में हमने  ब्ह्मकमल के जज़्बाती दरबारों में  फ्योली सा जीवन जिया है हमनें 

जब सीमित हुआ

नीड़ की छांव में  यादों की देहरी पर एक गाँव बसता सा लगा  तेरा दायरा बढ़ सा गया खुद को जब सीमित किया झुरमुटों की ओट में  सफ़र की थकान पर ख़ानाबदोश मन बह चला तेरा जिक्र अनजाने में हुआ खुद को जब सीमित किया पोथियों के बीच में  वर्तनी के हर अंश पर  एक दौर फिर चल निकला तेरा नाम लिख लिखता रहा खुद को जब सीमित किया।

तु शामिल रहा

जिनमें तु भी हमेशा से शामिल रहा चेहरे जो मान सम्मान से हैं बड़े माँ बहन बीबी बेटी और कुछ दोस्त हैं  वरना तो लोग आते और जाते रहै  दीप की रोशनी जगमगाती रही  मंज़िलों के सफ़र जो अधूरे रहे  उस कहानी को कोई कथानक न था वरना तो ख़्बाव बनते बिगड़ते रहे  जो कदम बढ़ के यूँ डगमगाते गये गीत ग़ज़लों में वो गुनगुनाते रहे  उस हिमालय सा तु चमकता ही रहा  वरना तो ये अंधेरे सताते रहे