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Showing posts from June 28, 2020

मानता कब है

कश्तियाँ बहा ले गए वो तूफां और थे  गरज गए जो बदरा वो बरसते कब हैं लौटकर आना पड़े समुन्दर की सीमा है  वरना पंछी को उड़ने की मनाही कब है तोड़कर बंदिशें आसमा में फ़ैल सकता है  संस्कारो में खड़ा पेड़ खुला बादल कब है  अपना हो नहीं सकता वो अपना लगता क्यूँ है  मन जानता सब है पर मानता कब है 

जब भी लगा

सहरा से निर्जन विस्तार पर यूँ लगा कमल सा खिल आया दो शब्द किसी ने लिख भेजे जब भी लगा वो भूल गया  पहाड़ों की शीतल चोटी पर  यूँ लगा तरूण मृग चल आया ऑंखों की पलकी झपकी है  जब भी लगा वो भूल गया  जंगल की घनी झाड़ियों से यूँ लगा पंछी कोई उड़ आया साँस की जिजीविषा लौटी है जब भी लगा वो भूल गया