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Showing posts from November 7, 2021

रोम रोम

 उत्ताप पर सब रोक देते   हम समर्पण कर गए  साँस मिली है सांसों से  रोम रोम आनंदित है  छुईमुई से बिखर जाते  अंग बाहें हैं समाते  उरोज की ताजगी  रोम रोम में खुशबू है  अरु तक जाते कर न रोके   स्पर्श नितंब जागते हैं  उष्ण बदन की कामुकता  रोम रोम समाहित है  बैठ पालती बात विचारे  समय क्यों रुकता नहीं  शांत सरल बातें तेरी रोम रोम उत्साहित है  जीना जीवन सीखा गया  खुद में खुद को भुला गया  आज में जीना सिखाता है  रोम रोम अभिभारित है 

दो सौ दिन

 समय कहाँ कब कम था  ठहरा है इंतजार तुम्हारे  सांसे बांधे दूर खड़ा एक  चाँद अटकता आँगन मेरे  शाम सबेरे रट एक रहती  नयन अधूरे मनन तुम्हारे  मृगतृष्णा सा दौड़ लगाता  प्यास अतृप्ति आँगन मेरे  सबकी अपनी पर्दादारी  ख्वाब किसी के द्वार तुम्हारे  देखा हैं सब इस दुनिया को  झूले टूटे सावन मेरे  मंजिल शायद साथ नहीं हो  खोना पाना साथ तुम्हारे  जी आया पल पल हरपल एक एक दो सौ दिन हैं मेरे 

अधराही

 मैं झड़े हुए पत्तों सा बिखरा आकर ढेर सजा जाना  बाँध पोटली काम आ सकूँ  मौसम सर्द जला जाना  मैं सूखे पेड़ों ठूँठ खड़ा सा  मधुमालती सा ढक जाना  सजा के गुच्छा काम आ सकूँ  या आस  चिता में जला जाना  मैं हिमखंड एक पिघलता सा  नीर पोखरा जमा जाना  सींचीं मिट्टी काम आ सकूँ  या प्यास चिड़िया बुझा जाना  मैं अधराही अधूरे रास्तों का  हो सके तो संग मिला जाना  सुनसान सफर में काम आ सकूँ  या मरता सा अहसास रहूँ  आ गले लगा ले "मोटे" मुझको  थक हार सोना है मुझको  कर दूँ बंद आँखे अब फिर  या जीवन जी लूँ नया कोई 

कभी तुझे भी

 कभी तुझे भी दर्द कोई   टीस देता है भला ! मन अचानक रो ही देता  आँख बंजर वन वही  कभी तुझे भी याद कोई  चुभ भी  जाती है भला ! मन अचानक खो ही जाता  शून्य होता मस्तिक सदा  कभी तुझे भी बात कोई  याद आती है भला ! मन अचानक कह भी जाता  आवाज़ गम जाती सदा  कभी तुझे भी स्पर्श कोई  यूँ जगा जाता भला ! मन अचानक थाम लेता  हाथ अंगुली वो सदा  कभी तुझे भी याद कोई  यूँ हंसा जाती भला ! मन अचानक खुश लगे  और नैन झर जाएँ सदा 

मर्मपथ छूटेगा नहीं

 ना जाने ये कुछ सजाएँ  क्यों भुगतता अनजान हूँ  कह दूँ तो अति हो जाती  चुप हूँ पर रहा जाता नहीं  ना जाने नैपथ्य मै कुछ  क्या घटता रहा अनजान हूँ  मोड़ उसपर चल पड़ा है  सहमा हूँ पर रुका जाता नहीं  ना जाने ये डोर कैसी  क्यों बांधती अनजान हूँ  मंजिलें सब अदृश्य सी हैं  अँधेरे फिर भी डराते नहीं  तू सफर की रौशनी  वो चाँद सूरज दीप सी  अनजान मेरी भाग्य रेखा  ये मर्मपथ छूटेगा नहीं 

प्रेम रिश्ता नहीं

 परम्पराओं में अहसास  नहीं मिलता  इसलिए परम्पराओं में  प्रेम नहीं मिलता  प्रेम कब परंपरा रहा है जग की  ये विशुद्ध समर्पण है  जो तुमने दिखाया है कभी  समाज के ताने बाने में  प्रेम रिश्ता  नहीं  इसलिए सभी की स्वीकार्यता में  प्रेम नहीं दिखता ये तृप्ति  अर्पण है जो तुमने दिखाया है कभी  तेरा समर्पण याद रहा है  तेरा अर्पण याद रहा है  घर के बाहर खिलती तुलसी  पश्चिम सूरज लाल डूबा है फिर भी प्रेम कहाँ छुपा है  ये स्वीकार्य रहा है मुझको  तेरी कमी रही जीवन को 

विश्वाशों का सफर

 उम्मीदों के शिखर पर आशाएं हैं  कोशिशों के हाथ कम तो नहीं  आएगी छिटककर वो रौशनी कभी  मनों की तार बाढ़ में दीवारें तो नहीं  अनवरत चला है सफर पगडंडियों पर  मंजिलों पर पैर कपकपायें तो नहीं  होगा मिलन आशाओं का कभी  प्रयासों पर लगे बादल छटेंगें तो कभी  अवरोध देर से ही सही पार तो हुए हैं  थका भी हूँ सहमा भी हूँ पर हारा नहीं  कभी आएगा तु घर द्वार मेरे  विश्वाशों का सफर हर बार कहता है यही