दो सौ दिन

 समय कहाँ कब कम था 

ठहरा है इंतजार तुम्हारे 

सांसे बांधे दूर खड़ा एक 

चाँद अटकता आँगन मेरे 


शाम सबेरे रट एक रहती 

नयन अधूरे मनन तुम्हारे 

मृगतृष्णा सा दौड़ लगाता 

प्यास अतृप्ति आँगन मेरे 


सबकी अपनी पर्दादारी 

ख्वाब किसी के द्वार तुम्हारे 

देखा हैं सब इस दुनिया को 

झूले टूटे सावन मेरे 


मंजिल शायद साथ नहीं हो 

खोना पाना साथ तुम्हारे 

जी आया पल पल हरपल

एक एक दो सौ दिन हैं मेरे 

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