निर्झर मन थी

 

वो जो गुमशुम रहा है सदियों भर 

जाने क्यों  रंग दिखाई न दिया 

वो धवल श्वेत निर्झर मन थी 

मैं कहाँ रंग चढ़ाता सा रहा 


वो जो जरीदारी रही मन पर 

जाने क्यों बंदिशें लगी हमको 

वो सुगम मंद हवा मन की 

मैं कहाँ रूप एक रमाता सा रहा  


वो जो दरबान से रहे प्रीत पर 

जाने क्यों हम समझ नहीं पाए 

वो  सरल वास्ता था इस मन का 

मैं कहाँ उल्टी डगर चलता ही रहा 


वो जो अलग छाप थी मन पर 

जाने क्यों हम गले लगा नहीं पाए 

वो खड़ा था सीधे से उस रस्ते पर 

मैं कहाँ चार पड़ाव रुकता ही रहा 

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