अब भी

उस बसंत का कोई कोना
मन में अब भी खिलता है
नदियों के संगम सा कोई
आकर मन से मिलता है

सुनसान पड़े बाज़ारों में
अब भी मन से टकराता है
मिस्री के ढळले सा कोई
आकर मन में घुलता है

लाल 'बुरांस' के फूलों जैसा
मन को आग लगता है
काजल के सेहरां सा कोई
अब भी आखों को सजता है

सुनी पड़ी हवेलियों में कोई
अब भी मूरत जैसा लटका है
स्याह पड़े इस अमावस में
अब भी गीत मिलन के गाता है 

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