तु कब अपना था

वहमों मे पलता अपनापन
अपनो के फैलाये वहम 
सांराश पर न पहुँच पाये
कि तु कब अपना था 

सींचीं हुई हर भावनाऐं 
खामोश मरती कल्पनाऐं
वो शब्द न गढ़ पाये 
कि तु कब पास था 

दूरियों में साँसों के निशाँ 
थमती अंगुलियों की चित्रकारी 
वो रंग न भर पाये 
कि तु कब बेरंग था 

ख़्बाव मे हिलोरें लेता मन 
हक़ीक़तों के बोने पहाड़ों से टकराकर
कब अपने लिए कुछ सज़ा पाये
कि तु अब साथ था 

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