अभिमन्यु और मैं

आज घिरा हूँ कर्मक्षेत्र में अभिमन्यु की तरह
उसी की तरह कई द्वारों को पारकर
पहुँचा हूँ उस कगार पर 
जहॉ से सारे सपने और मंज़िले अदृश्य है
रास्ते जिनसे चलकर बढ़ा था यहॉ तक
आज भूल सा गया हूँ सबकुछ
चारों ओर तरासी गयी तलवारें 
और ज़हर लगे बाणों का ढेर है 
मैं निर्वाह करके आया था कर्तव्य यहॉ तक 
हर क़दम जौहर दिखाया था मैंने 
हर रुकावट को परास्तकर बढ़ा था यहॉ तक
अब हर घायल भी मेरी राह मे अवरोध है 
मुझे डर नहीं इसका कि क्या जबाब दूँ जहाँ को
पर उस मॉ से क्या कहूँ?
जो अभिमन्यु की माँ की तरह सोयी नहीं थी
और आजतक भी मेरे लिए जागती रहती है 

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