मृगतृष्णा

घास फूँस की झोपड़ी में
जब बैठेंगा वो झील किनारे 
देखेगा आती लहरों को 
उन्माद फिसलती किरणों को
सोचेगा सब मृगतृष्णा तब 
कोपल फूल खिलाने को 

हाथो से कोई कंकड़ फैंके 
जब लौटती लहरों तक पहुंचेगा 
सुखी बजरी, रेता ख़्याब 
अंकिंचित कोई मन रह जायेगा 
खाली पडी कुछ कौढियों में 
फिर जीवन मर्म तलाशेगा 

चेहरों में होंगें दर्श बहुत 
कुछ स्याह सा छूट जायेगा 
पास होगा सब कुछ सबके 
कुछ छुटता सा याद आयेगा 
खाली पडी स्मृतियों की ढेंढीं पर 
कुछ ठक ठककर चला जायेगा 

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