वो तु है

जिसकी नज़रों का थोडा सा
अपनापन ही काफ़ी था
वो सारा जहां दे गया
तरसती थी जो सासें
उन्हें वो ढेरों इबारत दे गया 

जिसको पढ़ने को तरसती
थी ‘मन’ की सारी आशाऐं
वो स्नेह की पाती दे गया
महीनों जो सोयी नही आँखें 
उन्हें सुनहरा ख़्वाब दे गया

शंकाओं के घनघोर खरपतवारों मे भी 
जिसके लिए मन बीजूके से डटा रहा
वो अपनेपन की सब निशानी दे गया
शक के कोई बीज पनप न सके
वो यादों की सुनहरी फ़सल दे गया


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