माँ हैं न


 
हम सब को आजाद किया
फिर पंख दिए तब उड़ने को
बेफिक्र उड़े हम पार सरहदों के
घर में है उजियारी  माँ
दर्द  हमारा बांटती रहती
अब भी सीख सिखाती है
अपने दर्दो  को तो माँ
फूँ क से चूल्हे में जलाती है
शेखी है हमको हरे भरे खेतों की
दूर पहाड़ों के उस मौसम की
अहसास कहा हम कर पाते हैं
ठंड से अलझायी तेरी उंगलियो  की

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण