कुछ भी नही

कब भीड़ खड़ी करनी थी  
कब वो मक़ाम छूनें थे
विस्तार जीवन का इतना हो
स्नेह की छोटी सी क़तार हो 
और तु उसमें शामिल हो 

कब आवाज लगानी थी 
कब आँखों में रहना था 
देखना दूरियों मे इतना हो 
कि मीलों नज़र जायें 
और वहाँ बस तु ही शामिल हो

कब पा लेना  है सबकुछ
कब दुनियाँ में घूम जाना था
इतनी उम्मीदों की ज़मीं रहे 
कि बस खो जाय कुछ तो
उस खोने में तु शामिल न हो 

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण