चुपके समेटता है

 अब भी सहमा सा रहता है 

अब भी चुपके से पढ़ता है 

हाथ कलम लिए फिर भी 

वो अनपढ़ सा रहता है 

जानता और सब कुछ है 

कि खुली किताब हैं हम 


तब भी संभाला बिखरा था

अब भी चुपके समेटता है 

गले लगाए है फिर भी 

मीलों दूर  ही रहता है 

कहता सांसों में सांसे देकर 

कि अकेले ही काफी हैं हम 


पढ़ना कौन चाहे अब 

वो पन्ने फाड़ जाता हूँ 

बस बचे हुए तुम ही मुझमें

वो कागज मन में समाता हूँ 

जानता और सब कुछ हूँ 

कि चिंता तुझको रहती है 


मानता मैं  सब कुछ हूँ 

कि जीवन बाती तुमसे है 


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