तु मुझमें

तु एक धवल गंगा मुझमें 
बहता जल निर्मल उसका
पत्थर था मैं अङिग सदा
मनरे अहिल्या बना गया

काशी के घट द्वार वृन्दावन
मन धाम केदार रमा गया 
नश्वर था मैं ढिठ बङा 
मनरे ॠषि सा बना गया 

कोमल कोंपल फूल सहृदय
मन आस पीताम्बर थमा गया
बिन आँसू था कठोर बङा
मनरे थाप मिट्टी बना गया

कलम किताबें दौङ ज्ञान की
मनमीत ठहराव सिखा गया 
सूख खुशी आलाव ताप था
मनरे ऊधौ को प्रीत सिखाया

वैरागी सा मेरा मनन जीतकर
कहता प्रीत मांग समय नही है 
हर रिश्ते का सम्मान बांटकर
मनरे खुद से बगावत करता


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