शायद मै


ये देख ना पाया कि दिन लम्बे हो गये हैं
रिश्ते धरती गगन के कुछ तीखे हो गये 
शायद मैं अपने को साबित करता ही रहा
और तु मेरे अस्तित्व को कुचलता ही रहा....

झुका हूँ टूटा हूँ जब ज़रूरत हुई है 
सम्भला हूँ खड़ा हुआ हूँ दौड़ा हूँ सरपट
तुझ पर यूँ रुककर हारा नही था
और तु रुश्वाईयों की कस्ती दौड़ाता रहा है

सफ़र अवसान पर है यादें धूमिल हो ही जायेंगी
लौटी है दुनियाँ लौटे हैं बसन्त सब ही
मै बनाता रहा वो पुल संवेदनाओं के 
तु हर बार किवाड़ें बजाता ही रहा है......

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण