तुझ तक है

मै सर्वस्व हार मान बैठा हूँ 
फिर तु क्यों जीतने की ज़िद मे है 
ये मनों का स्नेह है मजबूरी नही 
तु मेरी कमजोरी समझ ले ये तुझ तक है

ये नही कि तेरे हर क़दम से वाक़िफ़ हूँ 
तुझसे उम्मीद है कि गैरौ से कुछ न सुनूँ 
ये सम्मानों के सफ़र है हक़ नही 
तु मान ले आँखें घुरती है तुझे ये तुझ तक है 

तु खुशी से बढता जाये मै साथ हूँ तेरे
सुनता हूँ मजबूरी तेरी तो आघात होता है
ये परवाह अपनो सा है खुलुश का नही 
तु गिन ले मुझे काफ़िरों मे ये तुझ तक है 

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण