हार


लहरों को हर बार देखा अपने से भागते हुए
वो जब कभी पास आयीं दूर जाती ही लगी
रेत पर घरोंदे बनाना आदत ही रही
जानता था ये बिखेरकर जाएँगी ...

झुक के चला था जीवन के पहाड़ पर
आशाओं की कोपल सहेजी थी हरदम
इरादों मै खोट होती तो यूँ वेदना न होती
वो हर बार टीस दे गयी काटों की चुभन की तरह

जग जीतने कौन निकला था यहाँ
कौन था घरो मै दिवाल खड़ी करता यहाँ
जीतना अगर मकसद होता तो पा भी लेता
मै हारने आया था और हार के जा रहा हूँ 

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