उदासी

कहाँ से चले थे
कहाँ को चल दिये 
पराये कब अपने थे
अपने भी चल दिये 

उम्मीदों के पहाड
आलीशान हों जितने भी
टूटने के बाद 
ताबिर बन ही जाते हैं 

बन्द लबों की बात
असर करती है ज़्यादा
ख़ामोशी अकेलेपन मे 
नासूर बन ही जाती है 

मुसाफ़िर हैं सब ही 
जाना तो सबको है 
ख़ाली घरों की उदासी 
मन को मार सी जाती है 



Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण