स्नेह दायिनी

वो नदी जो हिमनद के
नीचे बहती पाक लगी
कभी तेज मन्दाकिनी
कभी सरल सरस्वती लगी
यूँ झूठ के झरनो सी
पेश की गयी है हरवक्त
कि रुक-रुक कर
शंकाओ कि फसल उगती रही

न बहा हूँ उस नदी मे
न कभी गोते लगाए हैं
न ही भीगा हूँ उन झरनो में कभी
पीया हूँ जिसे अमृत समझकर
पूजा हूँ जिसे अविरल मानकर
अपनी सी बहती एक धार है
स्नेह दायिनी ही मानी है सदा
क्यों तुम विचारो का मैंला उड़ेले जाते हो 

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