बची रही

तांकता हूँ उम्मीदों के आसमान को 
क्या पता बरस जाये वो नीर
उसके ठूंठ बन जाने से पहले 
वो कुछ जड़े हरी बची रहीं 

सोचता हूँ उम्मीदों के मंज़र को 
क्या पता फिर दोहरा जाय वो शाम
उसके ढल जाने से पहले 
वो कुछ यादें ताज़ा बचीं रहीं 

देखता हूँ अरमानों के उस शून्य को 
क्या पता फिर नज़र आये वो तारा 
उन बादलों के आने से पहले 
वो कुछ छापें मनों पे लगी रहीं 

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