सदियाँ बीत गयी

यूँ लगा कि सदियाँ बीत गयी
ज़माने की सारी रीत छूट गयी
तेरी चुप्पी डराती रही
यूँ लगा कि अपनेपन की छाप मिट गयी

यूँ लगा की गलियाँ विरान हो गयी
जड़ो से जुड़ी हुई मिट्टी बह गयी 
हाँसीयें पर रहा  हरदम
यूँ लगा कि सांसे साथ छोड़ गयी

यूँ लगा कि फिर कोई साज़िश हुई
तटबंन्ध आस की बाढ़ के भेंट चढ़ गयी 
शंकाओं मन को झकझोरती रही
यूँ लगा कि वो खायी फिर गहरी हो गयी 

यूँ लगा कि यादें कही खो सी गयी
‘बन्दगी’ के गीतों की बलि चढ़ गयी 
बिष-बीज अंकुरित हुए हैं कही 
यूँ लगा कि वो फ़सल फिर हरी हो गयी 

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