शुरु कर

सूखे दरख़्तों पर आसियां बनाया है
बंजर में कोंपल का इंतज़ार है
जल रहा हैं कुछ तो कहीं 
और सब कुछ थमा सा है।
आ कुछ तो शुरू कर

सोच की दृढ़ता कही ग़ायब है 
जाती आँखों को रंगों का इंतज़ार है
सब तो बह गया है कहीं 
शहर की भीड़ ग़ायब है
आ कुछ तो शुरू कर

मन के कुछ प्रश्न हमेशा अधूरे रहे
उन नज़रों को पढ़ने का इन्तज़ार हैं
भावनाऐं अशान्त सी हैं कही
सब कुछ लिख तो दिया
आ कुछ तो शुरू कर

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