खिसकती रेत

जो भूला सा लगा हरदम 
उसे दोहरा गया हूँ 
खिसकती रेत में फिर से 
सपनों को सज़ाता हूँ 

जो छूटा सा लगा हरदम 
उसे पाता न खोता हूँ 
उफनती क्षीर में फिर से 
सपनों को तैराता हूँ 

जो ग़ैरों सा रहा हरदम
उसे मन में सजाया हूँ 
धधकती आग में फिर से 
ख़्वाबों को जलाता हूँ 

जो भूला सा रहा हरदम
उसे दिन दिन मैं गिनता हूँ 
असंख्यित स्वर्ग में फिर से
अंधेरों को भगाता हूँ 


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