आंदोलन के केले !! ( कहानी)

 

आंदोलन के केले !!

 बात १९९०-९१ की है उन दिनों देश में आरक्षण आंदोलन बढ़ता जा रहा था और हर विद्यार्थी की तरह हमारे स्कूल के बच्चे भी आंदोलन में कूदे हुए थे।  मुझे स्कूल में मेरे गुरुओं ने छोटे नेता का नाम दिया था और मेरे एक दोस्त को बड़ा नेता नाम दिया था वो शायद  इसलिए कि हम दोनों किसी भी विषय पर ठीक - ठाक भाषण दे देते थे आउट कई बार स्कूल को मद्य- निषेध और कई अन्य भाषण प्रतियोगिताएं में पुरुस्कार जीतकर लाये थे।  उन दिनों एक बार स्कूल में ही अपने प्रिंसिपल के नाम लेकर ही उन्ही के सामने हाय- हाय के नारे भी लगवा दिए थे और ये उन गुरुओ कि महानता थी कि उसके बाद भी वो हमे कहते थे कि भाषण में क्या अच्छा था और कैसे उसे सुधारा जा सकता था।  

यही करते करते एक दिन सुबह ही सबने तय किया कि आज आस पड़ोस के सब स्कूल - कॉलेज बंद करवाने हैं और सबको लेकर एक धरना करना है।  पड़ोस के ३ किलोमीटर कि दूरी का स्कूल हमसे हमेशा डरा सा ही रहा और हमारे जाते ही सुबह छुट्टी कि घंटी बजा गए।  थोड़ा भाषण बाजी के बाद दोनों स्कूलों के बच्चे आगे बड़े और ७ किलोमीटर दूर दुसरे स्कूल में पहुँचे वहाँ भी दौड़ भाग में स्कूल के प्रिंसिपल ने स्कूल बंद कर दिया।  यूँ तो ये स्कूल हमारे से बहुत बड़ा था पर न जाने क्यों हमारे स्कूल से डरा सा ही रहता था  । इसीलिए हमारे जाते ही वहाँ भगदड़ सी मच गयी जो हमारे लिए जीत जैसी ही थी।।  बाजार के बीच आकर कुछ भाषणबाजी हुई, भाषण हमेशा केवल तीन ही लोग देते थे जिनमे हम दोनों के अलावा एक लड़की थी।  थोड़ा पुलिस चौकी में हल्ला गुल्ला हुआ उसके बाद सरे बच्चो में जैसे ऊर्जा सी आ गयी और सबने तय किया सीनियर बच्चे १५ कम दूर स्थित कॉलेज को बंद करवाने जायेंगे बाकि के सब वापस जायेंगे और हुआ भी यही।।  दो बड़े ट्रक वाला का साथ मिला और सब ठूस -ठूस का ट्रक मई बैठकर हल्ला गुल्ला करते तहसील हेडक्वार्टर के सोल्लगे पहुँचे और वही के स्कूल को बंद करवाकर वहाँ के बच्चो को लेकर तहसील का घेराव किया भाषण बाजी और तालाबंदी के हंगामा ख़तम हुआ तो शाम के ४ -५ बज गए । अब आज के  आंदोलन से ज्यादा घर पहुँचने कि चिंता और भूख सताने लगी।  हलाकि दिन में  थोड़ा बहुत किसी सस्था ने पूरी आलू  खाने को दिए थे पर अब भूख चरम पर थी।  सब पैदल ही घर कि तरफ चल दिए थे कि रस्ते मई अचानक से केलों का एक बाग़ दिखा तो सब बाग़ में कूदकर बन्दर बन गए , तब हम शायद बन्दर ही थे । सब कच्चे केलों पर टूट गए मैं एक केला छिलके सहित खाना शुरू किया , मुँह है कुछ झाग देकर कच्चा  केला गले से निचे उतरा ही नहीं। न निगलते बना न उगलते बना। सबका यही हाल था और सब पानी कि तलाश में पास बहती मन्दाकिनी नदी में पहुँच गए।  तब पता चला कि कच्चा केला वैसा खाया ही नहीं जाता।।। जीवन के कई बरसो दाब आज भी जब भी अधकच्चे या कच्चा केला देखता हूँ खरीदता जरूर हूँ।।  खाने कि कोशिश भी करता हूँ।।  आज खट्टा अध् - कच्चा केला अच्छा लगता है । आंदोलन तो नहीं पर बचपन कि वो यादें,  संगसारी के वो केले याद जरूर दिलाती है।  

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