धारा

पोखर की ख़ुशबू सी सोंधी 

कोमल मिट्टी सा नाता 

छू लूँ तो मटमैली काया 

निहारूँ तो अपना साया 

कलकल बहती गुप्त धरा पर 

मन के अन्दर की घारा 

छतबत छतबत भीगा हूँ मैं  

कैसे सुखे अविरल धारा 

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