उन्मादों का एक सफर

 

तृण तृण ढूंढ मचाती  आशा 

खाली घर के सन्नाटे में 

मन के लाक्ष्यागृह में जलता 

उन्मादों का अपनापन है 


धूं धूं जलकर खाक हुई जो

सूखे खर की आग बढ़ी है 

मन की मृगतृष्णा में चलता  

उन्मादों का एक सफर  है


कण कण रज का कानन सुना 

कोने पर उम्मीद दबी है 

प्रभारों के बोझ में दबता 

उन्मादों का एकाकीपन  है

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