समय की रेत

 

मैं समय की रेत पर चलता रहा उड़ता रहा

वो  समुन्दर था मेरा, आगोश में लेता रहा 

कह न पाए शब्द बरसों अब रुका जाता कहाँ 

एक  रुंधी आवाज थी अब गीत देता तु लगा।। 


मैं गाछ के हर पात सा झड़ता रहा जलता रहा 

वो शिवालय था मेरा मैं  राख सा मलता रहा 

यूं तो हम औगण सदा से अब सजा जाता नहीं 

एक बुझी  सी लौ रही अब आग देता तु लगा।। 


मैं नदी के वेग सा अक्सर यूँ टकराता रहा 

जलबंध था मेरा मैं उसमे ही समाता यूँ रहा 

यूँ तो हम वीरान थे उजड़ी थी ये नगरी सदा 

एक शोध था बरबस हमारा ज्ञान तु देता रहा।।  


Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण